
हमारे घरों में अधिकतर औरतें ही खाना बनाती हैं. एक तरह से यह काम उनके लिए पेटेंट कर दिया गया है. कितनी ही अच्छी नौकरी करने वाली लड़की क्यों न हो पर घर की यह जिम्मेदारी उसी के सिर मढ़ दी जाती है. वहीं, जब हम घर से बाहर सड़कों का रुख करते हैं तो खाना तो वही रहता है लेकिन उसे बनाने वाले हाथ औरत से मर्द के हो जाते हैं. सड़क पर लगे ठेले, ढाबे और छोटे-बड़े रेस्टोरेंट्स में खाना बनाने का काम मर्द ही करते दिखते हैं.
बाहर खाना बनाने से जुड़े हर काम को मर्द बहुत ही करीने से और बिना किसी दिक्कत के करते हैं. खाना देना और बर्तन धोना भी वह बखूबी कर लेते हैं. लेकिन घर में दिन-रात खाना बनाने वाली औरत बाहर खाना बना के पैसा कमाती नजर नहीं आती है. जबकि उसके लिए तो ये काम करना और आसान हो जाएगा क्योंकि उसे बचपन से ही खाना बनाने की ट्रेनिंग दी जाती है.
हकीकत में ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि यहां बात खाना बनाने की नहीं बल्कि पैसा कमाने की होती है. बाहर खाना बनाना यानी की औरत का पैसा कमाना और समानता की ओर कदम बढ़ाना है. औरत के बाहर काम करने पर हमेशा से रोक लगाई गई है इसलिए इस क्षेत्र में भी महिलाएं बहुत कम दिखती हैं.
सड़क पर लगे बहुत कम ठेलों पर महिलाएं काम करती हैं. ठेला लगाने वाले और उन पर हेल्पर के तौर पर काम करने वाले सभी पुरुष ही होते हैं. ढाबों पर भी लगभग यही स्थिति दिखती है. इसी तरह रेस्टोरेंट्स में कुकिंग लाइन में लड़कियां न के बराबर हैं. बहुत ढूंढने पर शायद मुश्किल से एक-दो मिल जाएं. रेस्टोरेंट्स का किचन पुरुष ही संभालते हैं. यहां केवल वैट्रेस और रिसेप्शनिस्ट के तौर पर ही लड़कियां रखी जाती हैं. जब इस संबंध में अलग-अलग रेस्टोरेंट्स में बात की गई तो कई गौर करने लायक बातें निकलकर आईं.

रोहिणी में एमटूके पर स्थित ’चिली पेपर मल्टीकुजीन रेस्टोरेंट’ के मैनेजर ने बताया कि उनके यहां किचन में कोई लड़की काम नहीं करती. यहां होटल मैनेजमेंट की डिग्री/डिप्लोमा धारकों या अनुभव प्राप्त लोगों को नौकरी पर रखा जाता है. शुरूआत में वेतन करीब 10 से 12 हजार रुपये मिल जाता है.
जब उनसे पूछा गया कि एक भी लड़की न होने की क्या वजह है, तो उनका कहना था कि एक तो लड़कियां इस क्षेत्र में बहुत कम आती हैं और दूसरा उन्हें प्राथमिकता भी नहीं दी जाती. रेस्टोरेंट्स में किचन स्टाफ की ज्यादा जरूरत रात को होती है. रात के खाने के लिए सबसे ज्यादा ग्राहक आते हैं. लड़कियों को अगर रात के लिए रखा जाता है तो उन्हें कैब से छुड़वाने का बंदोबस्त करना पड़ेगा, जो बहुत खर्चीला है. बड़े होटल्स में लड़कियां कुक के तौर पर मिल सकती हैं क्योंकि वे कैब का खर्चा उठा सकते हैं.
दिल्ली में मशहूर ’बिट्टू टिक्की वाला(बीटीडब्ल्यू)’ के एक स्टोर पर जब बात की गई, तो वहां भी लगभग यही जवाब मिला. स्टोर के इंचार्ज पंकज ने बताया कि बीटीडब्ल्यू के किचन में कोई लड़की काम नहीं करती. लड़कियों को रखने की मनाही नहीं है पर वह नौकरी के लिए आती ही नहीं. बीटीडब्ल्यू में न्यूनतम दसवीं पास योग्यता के लोग भी किचन में रखे जाते हैं. अनुभव और डिग्री/डिप्लोमा भी नियुक्ति के आधार बनते हैं. यहां प्रारंभिक तौर पर वेतन 7,000 होता है, जो 10,000 रुपये तक जा सकता है.
‘मल्टीकुजीन रेस्टोरेंट जेडब्ल्यू मिराज’ में भी बात करने पर उनके किचन में कोई लड़की नहीं मिली. रेस्टोरेंट के मैनेजर श्रीमान रॉय ने बताया कि लड़कियां इस क्षेत्र में बहुत कम आती हैं. अधिकतर काम करने वाले लड़के ही मिलते हैं. उनके यहां नौकरी के लिए अनुभव होना अनिवार्य है. कोई बड़ी डिग्री या डिप्लोमा न होने पर भी केवल अनुभव और स्किल के आधार पर नौकरी मिल सकती हैं. इस रेस्टोरेंट में वेतन 12,000 रूपये से 45,000 रुपये तक जा सकता है.
रोहिणी सेक्टर नौ में बने रेस्टोरेंट ’ईलेवन टू ईलेवन’ में भी यही स्थिति है और किचन में कोई लड़की नहीं है. यहां के मैनेजर चतर सिंह बताते हैं कि इस काम में लड़कियां नहीं मिलतीं इसलिए अधिकतर रेस्टोरेंट के किचन में लड़के ही होते हैं. अगर वो इंटरव्यू के लिए आती हैं तो उन्हें जरूर रखेंगे. यहां किचन स्टाफ के लिए दसवीं और बारहवीं कक्षा तक की पढ़ाई भी मान्य है. अगर व्यक्ति एकदम नया है तो 5 से 6 हजार रुपये तक वेतन मिल जाता है. अनुभवप्राप्त होने पर 20 हजार रुपये तक तनख्वाह मिल सकती है.

शुरुआती स्तर पर ही नहीं मिलती लड़कियां
इससे पता चलता है कि कुकिंग की लाइन में अपनी आजीविका चलाने लायक वेतन प्राप्त करने के लिए किसी बड़ी डिग्री की आवश्यकता नहीं है. बड़े होटल में इसकी जरूरत अवश्य हो सकती है लेकिन रेस्टोरेंट्स में नहीं. यह भी महिलाओं के लिए रोजगार का बड़ा क्षेत्र बन सकता है.
ध्यान देने योग्य है कि ऐसी जगहों पर अनुभव को भी बहुत प्राथमिकता दी जाती है. आखिर ये अनुभव प्राप्त कैसे होता है? दरअसल, छोटे-बड़े ढाबे और अन्य जगहों पर काम करके लड़कों को यह अनुभव मिलता है और फिर बड़ी जगहों पर नौकरी मिल जाती है. लेकिन, शुरुआती अनुभव वाली इन्हीं जगहों पर लड़कियां नहीं मिलती हैं. यहीं पर लड़कियों की कमी होने से उन्हें आगे नौकरी मिलने की संभावनाएं अपने आप ही खत्म हो जाती हैं.
सवाल यह उठता है कि क्यों नहीं ठेलों और ढाबों पर लड़कियां काम करती हैं. इसके पीछे एक कारण दिखता है लड़कियों के कमाने पर जोर न होना. लड़का अनपढ़, पढ़ा-लिखा, विकलांग और स्वस्थ चाहे जैसा भी हो उसे कमाना ही पड़ता है. उसके लिए यह अनिवार्य माना गया है. इसलिए वह कैसे न कैसे कोई काम ढूंढ लेता है और घरवाले भी उसके लिए मना नहीं करते.
वहीं, समाज ने लड़कियों के लिए नौकरी विकल्प के तौर पर रखी गई है. हालांकि, यह विकल्प भी हर जगह नहीं है, अब भी बड़े स्तर पर लड़कियों के घर में रहने को ही प्राथमिकता दी जाती है. ऐसे में उन पर कमाने का दबाव न होने पर घरवाले उनके लिए सुरक्षित नौकरी ही चुनते हैं, जिसमें ज्यादा लड़के न हों, लड़की जल्दी घर आ जाए और साफ-सुथरा काम हो ताकि उसके हाथ-पांव खराब न हों वरना शादी में दिक्कत आ सकती है. जब लड़की बहु बनती है तब तो उसकी नौकरी के विकल्पों का दायरा और सिमट जाता है. ऐसे में ढाबे जैसी जगहों पर जहां पुरुष वर्चस्व है और कई तरह के ग्राहकों का आना-जाना रहता है, माता-पिता वहां लड़की को भेजना ठीक नहीं समझते.
इस काम में भी महिलाएं बेझिझक कदम रख सकती हैं. इसके लिए उन्हें न कोई विशेष कला सीखने की जरूरत है और न ही बहुत ज्यादा पढ़ा-लिखा होना जरूरी है. वह सड़क पर छोले-भठूरे, सब्जी-रोटी, राजमा चावल और पकोड़े आदि का ठेला लगा सकती हैं. अपना ढाबा खोल सकती हैं या किसी ढाबे में काम कर सकती हैं. ऐसा नहीं है कि अभी इस क्षेत्र में लड़कियों की भागीदारी बिल्कुल नहीं हैं लेकिन उनका प्रतिशत बहुत ही कम है. कुछ औरतें हैं जो अपने इस हुनर को अपनी आजीविका में सफलतापूर्वक तब्दील कर रही हैं.

पायल खुराना का अन्नपूर्णा भोजनालय’
ऐसी ही एक महिला हैं पायल खुराना जो नौ साल से गांधी विहार में अपना ढाबा चला रही हैं. ’अन्नपूर्णा भेजनालय’ नाम से चलने वाले इस ढाबे में दिन-रात ग्राहकों का आना-जाना लगा रहता है और यहां काम करने वाली अन्य चार महिलाएं बिना रुके रोटी-सब्जी बनाती जाती हैं.
पायल और उनके पति ने मिलकर यह काम शुरू किया था. पहले वे ऑटो स्टैंड पर ठेला लगाया करते थे. उसके बाद काम अच्छा चला तो यहां ढाबा खोल लिया. अब ढाबे का अधिकतर काम पायल ही देखती हैं. वह खुद खाना बनाती हैं और पैसों का लेन-देन भी संभालती हैं. ग्राहकों को लेकर या काम में आने वाली अन्य दिक्कतों के बारे में जब उनसे पूछा, तो वह साफतौर पर कहती हैं कि बिजनस है थोड़ी बहुत परेशानियां तो आएंगी ही, पर ये सब चलता है.
वहीं, सवालों के बीच पूनम के ही बगल में बैठीं कुसुम फटाफट रोटियां बेलती और तवे पर सेकती चली जा रही थीं. कुसुम इस ढाबे पर छह साल से काम कर रही हैं. अब तो वह इस काम की पूरी तरह अभ्यस्त भी हो चुकी हैं. वह बताती हैं कि उनके काम से घर में बहुत मदद होती है और इससे उन्हें खुशी भी मिलती है. यह काम को करने में कभी कोई दिक्कत नहीं होती.
ये महिलाएं साबित कर रही हैं कि लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनका कुकिंग लाइन में जाना नुकसानदायक काम नहीं है. अगर आपकी बेटी बहुत ज्यादा पढ़-लिख नहीं पाई है तो उसे घर पर बैठाने की बजाए इस काम के लिए प्रोत्साहित करें.
Love this story. It reminded me of some interesting things from our childhood. Malia Georgie Misha