हमारी बोलचाल का हिस्सा बन चुकीं कई कहावतों में कहीं महिलाओं को कमजोर बताया गया तो कहीं, उनका वस्तुकरण किया गया है. इन कहावतों को बार-बार दोहराकर हम महिलाओं की विकृत छवि को और सुदृढ़ कर देते हैं. ऐसी ही कुछ कहावतों का विवरण नीचे दिया गया है:
हाथों में चूड़ियां पहन रखी हैं क्या
जब कोई व्यक्ति किसी काम को करने से डरता है (अधिकतर लड़ाई के समय) तो उसे धिक्कारने और शर्मिंदा करने के लिए बोला जाता है, ‘तूने हाथों में चूड़ियां पहन रखी हैं क्या’. इसमें अप्रत्यक्ष रूप से कहा जाता है कि वह कमजोर है और यह काम करने की उसमें हिम्मत नहीं है. परंतु यह कहावत उस व्यक्ति को नहीं बल्कि पूरे स्त्री वर्ग को कमजोर साबित करती है क्योंकि चूड़ियां एक गहना है जिसे केवल महीलाएं पहनती हैं.
हमारे समाज में महिलाएं कमजोर मानी जाती हैं और उन्हें कमजोर बनाया भी जाता है. इसलिए उनसे जुड़ी चीज को कमजोरी के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. साथ ही बार-बार यह कहावत दोहराकर इस धारणा को और बल दिया जाता है. निर्भया कांड के समय बलात्कार के विरुद्ध आंदोलन कर रहे लोगों ने नाॅर्थ, साउथ ब्लाॅक में चूड़िया फेंकी थीं. उन्होंने प्रतीकात्मक तरीके से सरकार को जताया था कि वह बलात्कार के खिलाफ कठोर कानून बनाने से डरती है. यह दर्शाता की पुरुषवर्चस्व की जड़ें हममें कितने गहरे तक समाई हैं कि महिला अधिकारों की बात करते हुए भी हम इस वर्चस्वता से बाहर नहीं आ पाते. इसलिए जरूरी है कि इस कहावत का इस्तेमाल बंद हो या महिलाएं चूड़ियां पहनना छोड़ दें.
लड़की की उम्र और लड़के की सैलेरी नहीं पूछी जाती
अक्सर यह कहावत बोलते हुए हम बहुत समझदार अनुभव करते हैं जबकि इसका अंदाजा तक नहीं होता कि हम किस पक्षपाती विचार को बढ़ावा दे रहे हैं. सदियों से मान्यता है कि कमाना लड़के का काम है और लड़की घर में ही रहती है. शादी के समय भी लड़के की कमाई और लड़की की सुंदरता देखी जाती है. लड़की की कमाई और उसकी पहचान को उपेक्षित किया जाता है. उसका काम केवल सुंदर बनना और सेवा करना माना गया है. यह कहावत इसी पक्षपाती सोच की ही देन है, जिसके तहत लड़की केवल घर तक सिमट जाती है. यहां कम उम्र का सीधा संबंध लड़की की सुंदरता से है. लड़कियों के लिए खूबसूरत रहना अनिवार्य माना गया है और न रहने पर उसकी कोई अहमियत नहीं इसलिए उम्र पूछकर लड़की को शर्मिंदा न करो. लड़के लिए कमाना जरूरी है इसलिए उसका वेतन पूछकर उसे असहज मत करो. भेदभाव को प्रचारित करने वाली ऐसी कहावतों का उपयोग बंद होना चाहिए.
लड़कियों की तरह मत रो
हमारे समाज में यह सर्वमान्य मिथ्या धारणा है कि महिलाएं शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर होती हैं और पुरुष मजबूत. ‘लड़कियों की तरह मत रो’ जैसी कहावतें इस धारणा को और बढ़ावा देती हैं. किसी लड़के के रोने पर उसे अक्सर कह दिया जाता है कि लड़कियों की तरह मत रो जबकि लड़की के रोने पर लड़के से जोड़कर एेसा नहीं कहा जाता. दरअसल, रोने को कमजोरी की निशानी माना जाता है. इसके चलते पुरुष को इससे दूर रखने की कोशिश की जाती है ताकि किसी भी क्षण में वह खुद को कमजोर प्रदर्शित न करे. रोने जैसे सामान्य भाव से वह ऊपर उठ जाए और स्त्री से ऊंचा व मजबूत दिखे. ‘मर्द को र्दर्द नहीं होता’ जैसे डायलाॅग भी इसी मानसिकता का हिस्सा हैं.
वहीं, हकीकत इससे परे है. पुरुषों को भी रोना आता है. बचपन में तो रोने को लेकर लड़का और लड़की में कोई अंतर ही नहीं होता. परंतु रोने पर लड़के को लज्जित करके और फिल्मों व विज्ञापनों आदि में भी ऐसा ही देखकर लड़के खुद को रोने से रोकने लगते हैं. इस तरह रोने और कमजोर होने का तमगा केवल लड़कियों पर लग जाता है. साथ ही पुरुष में स्त्री पर वर्चस्व की सोच इस कदर हावी की गई है कि वह स्त्री से जुड़ी किसी भी चीज और व्यवहार से घृणा करता है और खुद में उसके होने से हीनता अनुभव करता है.
औरत मां बनने पर पूर्ण होती है
इस कहावत के अनुसार मातृत्व को औरत की पूर्णता की एकमात्र शर्त माना गया है. इसके अनुसार पूणर्ता का अर्थ यह है कि अगर कोई स्त्री मां नहीं बनती है तोे वह स्त्री होने से अधूरी रह जाएगी. वह औरत ही नहीं कहलाएगी. जबकि ऐसा मानने का कोई तार्किक आधार नहीं मिलता. कोई भी स्त्री अपने आप में पूर्ण होती है. वह एक स्त्री के रूप में जन्म लेती है और उसे स्त्री बनने के लिए कुछ और करने की जरूरत नहीं है. फिर पूर्णता के इस नियम के पीछे क्या वजह हैं. इसके पीछे समाज की यह मान्यता काम करती है कि औरत का जन्म ही प्रजनन के लिए हुआ है. इंसानी बच्चों का उत्पादन करके मनुष्य जाति को आगे बढ़ाने के लिए ही उसकी आवश्यकता है. इसलिए जब तक वह औरत होने के सबसे प्रमुख कार्य को पूरा नहीं लेती तो उसके जन्म का उद्देश्य पूरा नहीं होता. वह पूणर्ता औरत नहीं हो सकती.
जबकि असल में मां बनना स्त्री में एक प्राकृतिक विशेषता है. वह मां बनती है क्योंकि यह उसकी इच्छा होती है, उसे खुशी मिलती है. अगर वह चाहे तो, मां न भी बने. वहीं, पुरुषों के पिता बनने पर ही पूर्ण होने की बात नहीं की जाती जबकि प्रजनन में उसका भी योगदान है. ऐसा इसलिए है क्योंकि समाज द्वारा पुरुष के लिए और भी कई उद्देश्य तय किए गए हैं. जैसे काम करना, कमाना, पहचान बनाना और सफल होना आदि कई कार्य उसे करने हैं. औरत को केवल बच्चा उत्पादन की मशीन माना गया है. इसलिए जरूरी है कि ऐसी कहावतों के उपयोग पर रोक लगाई जाए. खासकर फिल्मों और किताबों में इसका उपयोग न होने पर विशेष ध्यान दिया जाए.
प्रैक्टिस मेक्स अ मैन परफेक्ट (Practice Makes a Man Perfect)
अंग्रेजी भाषा की कहावतें भी पक्षपता से अछूती नहीं हैं. ’प्रैक्टिस मेक्स अ मैन परफेक्ट’, इस कहावत का प्रचलित अर्थ है कि अभ्यास करने से मनुष्य पूर्ण होता है. किसी कार्य का बार-बार अभ्यास करके वह उसमें पारंगत हो सकता है. लेकिन, इसके शब्दों पर जाएं तो यह अर्थ गलत है. यहां मनुष्य नहीं ‘मैन’ यानि पुरुष की बात की गई है. इसका वास्तविक अर्थ निकलता है, अभ्यास करने से पुरुष पूर्ण होता है. इस कहावत में मनुष्य की जगह पुरुष को स्थान दिया गया है जो महिलाओं की उपेक्षा दर्शाता है. उन्हें मनुष्य माना ही नहीं गया है.
साथ ही यह धारणा है कि महिलाओं को ऐसे कठिन काम करने ही नहीं होते जिसमें अभ्यास की जरूरत हो. अगर अभ्यास कर भी लें तो भी वह पूर्ण नहीं हो सकतीं. इसलिए इस कहावत में स्त्री को शामिल नहीं किया गया है. समाज उसे अभ्यास करने और पूर्णता के लायक मानता ही नहीं है. जबकि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है कि औरत कठिन काम और अभ्यास नहीं कर सकती है. इसलिए इस कहावत के पक्षपाती तत्व को खत्म कर इसे ‘प्रैक्टिस मेक्स अ ह्यूमन परफेक्ट’ कहना चाहिए.