ड्राइविंग केवल गाड़ी चलाना नहीं बल्कि अपने रास्ते खुद तय करने का परिचायक है. गाड़ी की स्टीयरिंग आपके हाथ में आते ही मन पहले थोड़े डर और फिर विजयी होने के गर्व से भर जाता है. आपके अंदर आत्मविश्वास का संचार होता है और आप परनिर्भर से आत्मनिर्भर हो जाती हैं. ड्राइविंग से लड़कियों में आए आत्मविश्वास पर नारी उत्कर्ष का यह आलेख:
एक समय था जब लड़कियां अपने भाई, पापा या किसी दोस्त की गाड़ी पर बैठकर ड्राइव करने की केवल कल्पना ही कर सकती थीं. स्टीयरिंग अपने हाथ में पकड़ ड्राइविंग करना उनके लिए एक सपना लगता था. पर लंबे इंतजार के बाद ही सही बाजार में ‘वाय शुड ब्याज हैव ऑल द फन’, टैग लाइन के साथ स्कूटी के आते ही सड़कों पर लैंगिक समीकरण बदल गया. पहले से कहीं ज्यादा लड़कियां स्कूटी पर तूफानी रफ्तार से दौड़ने लगीं.
जो लड़की अब तक बाइक पर पीछे बैठकर किसी और के सहारे नजर आती थी वो अब खुद हैंडल संभालने लगी. वो अब जहां चाहे गाड़ी को घूमाकर अपनी मर्जी के रास्ते बना सकती थी. यह सशक्तता की ओर महिलाओं का बढ़ता कदम बना, जिसने उनमें आत्मविश्वास जगाया. सशक्तता इसलिए क्योंकि अब तक सड़कों पर केवल पुरुष वर्चस्व ही कायम था और महिलाएं उन पर निर्भर थीं. हालांकि, महिला ड्राइवर्स तब भी मौजूद थीं लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी. वाहनों में भी वो केवल कार या साइकिल ही चलाती थीं. कार भी सब लोग खरीद नहीं सकते थे और साइकिल एक खास उम्र तक ही चला पाती थीं. ऐसे में जो महिलाएं ड्राइव करती थीं उन्हें भी अजूबे की तरह देखा जाता था.
दरअसल, लड़कियों को एक लंबे समय तक ड्राइविंग से दूर रखा गया है. ड्राइविंग करना कठिन काम है, गाड़ी बहुत भारी होती है या गाड़ी लेकर क्या करेगी बाहर तो जाना नहीं होता, जैसे कारण उन्हें बताए गए. लड़कियों की सबसे ज्यादा दूरी बनी रही बाइक से. बाइक चलाने वाली लड़कियों का प्रतिशत लगभग जीरो था और अब भी काफी कम है. ऐसे में धीरे-धीरे ड्राइविंग केवल एक जेंडर तक ही सिमट गई और उनकी ताकत बन गई. अब कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ने और स्कूटी के बाजार में आने से महिला ड्राइवर्स की संख्या बढ़ी है. यह मान्यता कि ड्राइविंग सिर्फ लड़कों का ही काम है, सिरे से खारिज हुई है. महिलाओं ने वो काम, जो उनके लिए दुर्लभ बना दिया गया था, सीख कर दिखाया है. गाड़ी चलाने से लड़कियों का आत्मविश्वास दोगुना हो गया है.
व्यक्तित्व पर असर
ड्राइविंग आने का केवल यह फायदा नहीं हुआ कि अब आप कहीं भी आसानी से जल्दी पहुंच सकती हैं, बल्कि ड्राइविंग तो आपके व्यक्तित्व को भी प्रभावित करती है. यह स्वतंत्रता की परिचायक है और जब आप गाड़ी चलाती हैं तो कहीं न कहीं आपकी आजादी में वृद्धि होती है. जैसे गाड़ी चलाते हुए आप कहां जाएंगी और कब जाएंगी इसका फैसला खुद करती हैं. किसी और की इच्छा व समय के अनुसार आपको नहीं चलना पड़ता, जो आपकी दूसरे के ऊपर निर्भरता को समाप्त कर देती है और आत्मनिर्भर बना देता है. कुछ ऐसा ही अनुभव करती हैं, मंगोलपुरी में रहने वाली प्रीति, जो तीन साल से रोज अपनी स्कूटी से स्कूल पढ़ाने जा रही हैं. वह बताती हैं कि “जब मुझे स्कूटी चलानी आई तो बहुत गर्व का अनुभव हुआ. सड़क पर स्कूटी लेकर निकलने में महसूस करती हूं कि जैसे मैं भी कुछ हूं और मैंने कोई उपलब्धि पाई है.”
पत्रकार नेहा झा का भी ऐसा ही मानना है. वो कहती हैं कि “मैंने काफी समय पहले स्कूटी चलाना सीख लिया था. जब पहली बार गाड़ी चलाई तो ऐसा लगा कि बस पूरी दुनिया मेरे कदमों में है और मैं आसमान में उड़ने को तैयार हूं. ड्राइविंग ने मुझे आजादी का अहसास कराया और मैंने बहुत गौरान्वित अनुभव किया.” इसी तरह कार चलाने वाली पूजा सिंह अपने अनुभव बताते हुए कहती हैं “ड्राइविंग सीखने के बाद अब मेरे मम्मी-पापा कहीं जाने के लिए सिर्फ भाई से ही नहीं बल्कि मुझसे भी बोलते हैं. जहां पहले बाहर के या दूर के काम केवल भाई के थे अब मेरे भी हो गए हैं. इससे महसूस होता है कि सिर्फ मैं ही किसी पर निर्भर नहीं हूं बल्कि कोई और मुझ पर भी निर्भर है.”
लड़कियों के बाहर निकलने में रुकावट की एक बड़ी वजह असुरक्षा भी होती है लेकिन अगर ड्राइविंग आती हो, तो यह खतरा भी कुछ कम हो जाता है.. इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, मुंबई में वीडियो एडिटर समरीन. वह बताती है कि “मेरे ऑफिस में देर रात तक की शिफ्ट लगती है. पहले मैं वो शिफ्ट लेने से मना कर देती थी क्योंकि घर जाने के लिए गाड़ी मिलने में मुश्किल होती थी और डर भी लगता था. जब से स्कूटी चलानी आई है तो बिना डरे शाम की शिफ्ट करती हूं. मुझे भरोसा रहता है कि रास्ते में कुछ भी गड़बड़ हुई तो गाड़ी भगा लूंगी. साथ ही घरवालों में भी डर कम हुआ है.” वहीं दिल्ली में रहने वाली प्रिंसी कहती हैं कि “कोई भी नया काम सीखने से हमारी जानकारी बढ़ती है और इससे आत्मविश्वास में बढ़ोतरी होना स्वाभाविक है. ड्राइविंग तो ऐसा काम है, जो हमें सीखने से रोका गया था इसलिए उसे सीखकर कुछ पा लेने का अहसास तो होता ही है.”
पु्रुष वर्चस्व की निशान
गौरतलब है कि वर्तमान समय में भले ही महिला ड्राइवर्स की संख्या बढ़ी हो लेकिन सड़कों पर अब भी उनका प्रतिशत बहुत कम है. अब भी घरों में पहले बेटे के लिए ही बाइक खरीदी जाती है. इस संबंध में क्रॉनिकल आईएएस में समाजशास्त्र के शिक्षक मनीष सिंह बताते हैं “यह सही है कि ड्राइविंग स्वतंत्रता को इंगित करती है, लेकिन हमारे समाज में इसे महिलाओं के लिए स्वछंदता मान लिया गया है. इस कारण उन्हें ड्राइविंग से दूर रखा जाता है.
दरअसल, हमारे समाज में सदियों से पुरुष वर्चस्व होने के कारण बाहर जाना केवल पुरुषों का ही काम रहा है. किसी भी वाहन की जरूरत क्योंकि बाहर जाने के लिए ही होती है, इसलिए पहले सार्वजनिक और फिर निजी वाहनों पर पहला अधिकार पुरुषों का ही हुआ. अधिकतर महिलाएं घर में ही रहा करती थीं, इसलिए उनके लिए निजी वाहन या ड्राइविंग की जरूरत महसूस ही नहीं की गई. धीरे-धीरे क्योंकि घर में निजी वाहन होने से महिलाएं भी सार्वजनिक वाहन का इस्तेमाल कम करने लगीं तो उनकी पुरुष पर निर्भरता और बढ़ गई.”
मनीष सिंह कहते हैं कि औरत की निर्भरता के साथ-साथ पुरुष में वर्चस्वता का भाव और औरत पर अपने प्रभुत्व की भावना भी बढ़ती गई. मर्द, औरत को अपनी गाड़ी पर बोझ की तरह ढोता गया और खुद को उससे ऊपर मानता गया. इससे गाड़ी चलाना या कहें की स्पीड, शक्ति प्रदर्शन का एक जरिया बन गया. लेकिन जब औरत ने वर्चस्वता के इस किले में सेंध लगाई और ड्राइविंग की ताकत पर अपना दावा ठोका तो महिला की पुरुष पर निर्भरता कम होने लगी. चूंकी हमारा समाज महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने वाली कोई भी चीज उससे दूर रखना चाहता है, इसलिए महिलाओं के ड्राइविंग करने को स्वछंदता या बिगड़ना करार दिया जाने लगा और उनकी ड्राइविंग क्षमता की अलोचना की गई, जो अब भी की जाती है.
इसमें विज्ञापनों का भी बड़ा योगदान है क्योंकि उनमें भी केवल लड़कों को बाइक या कार चलाते दिखाकर इस धारणा को बल दिया जाता है. प्रथम एनजीओ में कार्यरत पूजा बंसल कहती हैं कि विज्ञापन में पहली बार किसी लड़की को स्कूटी चलाते हुए दिखाना अच्छा लगा था, क्योंकि उससे पहले तो लड़के ही दिखाए जाते थे. बाइक और कार के मामले में भी यही होना चाहिए. ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वुमेंस असोसिएशन की सचिव कविता कृष्णन भी कहती हैं “ड्राइविंग कोई ऐसी चीज नहीं जो औरत से अछूती रहे. सभी अधिकारों की तरह ये अधिकार भी उन्हें मिलना ही चाहिए. इससे महिलाओं का बाहर आना जाना भी बढ़ता है.” अब जरूरी है कि लड़कियां और महिलाएं ड्राइविंग के माध्यम से आने वाली स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता को समझें. खुद को कमतर न आकें और सड़कों पर ज्यादा से ज्यादा संख्या में गाड़ी लेकर उतरें.
स्कूटी तक ही न रहें सीमित
यह सही है कि स्कूटी ने लड़कियों के लिए ड्राइविंग के दरवाजे काफी हद तक खोल दिए हैं. परंतु कहीं न कहीं इस वाहन में भी लैंगिक पक्षपात नजर आता है. मनीष सिंह बताते हैं कि स्कूटी को उसके हल्के वजन और चलाने में आसान होने के कारण लड़कियों के लिए बनाया गया है. पर गाड़ी की इस खासियत से यह संदेश जाता है कि भारी और कठिन वाहन जैसे बाइक चलाने की क्षमता लड़कियों में नहीं है और वो पुरुषों से इस मामले में पीछे हैं. इस गलत धारणा को बदलने के लिए लड़कियों को बराबर क्षमता की मांग करने वाली गाड़ियों को चलाना होगा. जैसे भारी स्कूटी या स्कूटर और बाइक को बढ़ावा देना होगा. बाइक को भारी बताकर लड़कियों के लिए वर्जित माना जाता है जबकि कई लड़कियां बहुत अच्छी बाइक चला लेती हैं. इसलिए अपनी मानसिक कमजोरी छोड़ें और किसी भी तरह के वाहन को चलाने से न डरें.