
आधी आबादी को आत्मनिर्भर बनाने की बड़ी-बड़ी बातें तो की जाती हैं, लेकिन हमारे दोगले समाज ने उसमें भी महिलाओं के लिए एक दायरा सीमित कर दिया. पुरुषवादी मानसिकता वाले समाज में महिलाओं को अब तक रोजगार के कई क्षेत्रों से दूर रखा गया है. पुरूषों को इस बात का गुरूर है कि रोजगार के इन क्षेत्रों पर उनका एकाधिकार है. पुरुष वर्चस्व के कारण महिलाओं को भी इन क्षेत्रों में उतरना मुश्किल लगता था. लेकिन, पिछले कुछ सालों से यह परंपरा दरकती नजर आ रही है.
कहते हैं कि मिसाल कायम करने के लिए आसमानों में सूराख नहीं किए जाते. जमीन पर एक मजबूती का कदम भी कामयाबी और साहस की खूबसूरत इबारत बन जाता है. ऐसी ही इबारत महिलाओं ने लिखनी शुरू कर दी हैं, अपनी आजीविका के स्रोत बढ़ाकर. बात अगर रोजगार की करें, तो आज महिलाएं पारंपरिक रोजगारों के खांचे से बाहर निकलकर उन पेशों को भी अपना रहीं है, जिन पर अभी तक पुरुषों का ही दबदबा रहा है. महिलाएं इन्हें सिर्फ अपना ही नहीं रहीं बल्कि सफलतापूर्वक निभा भी रही हैं. ट्रांसपोर्टेशन, सिक्योरिटी सर्विस, जैसे रोजगार के कई ऐसे पेशों पर पुरुषों का आधिपत्य रहा है. गाड़ी की स्टीयरिंग पकड़े सिर्फ पुरुष ही सड़कों पर दिखाई देते थे. हालांकि, महिलाओं ने ड्राइविंग सीखकर गाड़ी चलाना शुरू जरूर किया, लेकिन यह निजी वाहन चलाने तक सीमित था. रोजगार के नाम पर ड्राइविंग से महिलाएं दूर ही रहीं.
वक्त बदला, साथ में बढ़ी महिलाओं की हिम्मत और उनकी निगाह गई ड्राइविंग के जरिये पैसा कमाने की ओर. उनके लिए यह मुश्किल तो था, लेकिन जब ठान लिया, तो हर बाधा को पार किया. अगर बात सिर्फ राजधानी दिल्ली की करें, तो आज यहां कई महिलाएं सड़कों पर ऑटो, ई रिक्शा, टैक्सी और कैब चलाती दिख जाएंगी. इन्हें देखकर लोगों को शुरू में कुछ हैरानी जरूर हुई, लेकिन धीरे-धीरे आदत हो गई. तथाकथित रूप से पुरुषों के लिए आरक्षित कहे जाने वाले इन क्षेत्रों में कार्य करने के बाद इन महिलाओं की आमदनी में इजाफा हुआ है. साथ ही आत्मविश्वास बढ़ने से रक्षात्मक भाव भी जागा है. पेश हैं कुछ महिलाओं के अब तक के सफर की कहानी.
लोगों को पहुंचाती हैं मंजिल तक
दिल्ली की पहली महिला ऑटो चालक सुनीता चौधरी को ऑटो चलाते हुए 11 साल हो चुके हैं. दिल्ली की हर सड़क से गुजर चुकीं सुनीता के लिए दिन-रात का फासला भी मिट चुका है और वह किसी भी वक्त ऑटो लेकर निकल पड़ती हैं. हालांकि, उनका यह सफर कतई आसान नहीं था. मूलरूप से मेरठ के पास किला परीक्षितगढ़ गांव की रहने वाली सुनीता अपनी कहानी बताते हुए कहती हैं, “मैं काम की तलाश में दिल्ली आई थी. यहां किसी भी नौकरी के लिए थोड़ी-बहुत अंग्रेजी आना जरूरी था. यहां तक कि सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी भी बिना अंग्रेजी आए मिलनी मुश्किल थी. मैं तो गांव-देहात के स्कूल से मैट्रिक ही पास कर पाई थी. अंग्रेजी बोलने का तो सवाल ही नहीं था. दूसरा, हाथों का भी कोई हुनर नहीं था, जिसे कमाई का साधन बनाती. थककर फैक्टरियों में काम शुरू किया. धागा काटा, डिस्टेंबर भरा, बिस्किट बनाने की फैक्टरी में काम किया. लेकिन, इन सभी में मात्र 1000-1200 रूपया तनख्वाह मिलती थी. जिसमें खाना और किराया खर्चा निकालना मुश्किल था. वापिस घर भी नहीं जा सकती थी, क्योंकि परिवार की हालत अच्छी नहीं थी और मैं उन्हें आर्थिक सहयोग देने के लिए दिल्ली आई थी.”

सुनीता आगे बताती हैं, ‘फिर मैंने फैक्टरी में काम छोड़ बसों में कंडेक्टरी शुरू की और टिकट काटने लगी. इस दौरान मैं ड्राइवर को देखती थी. वह किस तरह बस को मोड़ता है, गियर देता है और ब्रेक लगाता है. बस यहीं से मेरे दिमाग में खयाल आया कि मैं भी ड्राइविंग कर सकती हूं. जितनी मेहनत टिकट काटने में करती हूं उतनी मेहनत खुद की गाड़ी चलाने में करूंगी तो कमाई भी अच्छी होगी और अपना काम भी रहेगा. मन में विचार तो आ गया था, लेकिन पहली समस्या थी ड्राइविंग सीखने की. लोनी बॉर्डर पर आरडीटीआर से ड्राइविंग की ट्रेनिंग ली. यहां मैं पहली लड़की थी जो ट्रेनिंग लेने पहुंची थी.”
सुनीता कहती हैं “ ड्राइविंग सीखने गई, तो सब अजीब निगहों से देखने लगे, जैसे मैंने कुछ अचंभित बात कह दी हो. ट्रेनिंग के दौरान भी मुझे लड़कों के ताने सुनने को मिलते थे. उनका पूरा ग्रुप होता था. मैं जब ड्राइविंग सीखती तो वह जोर-जोर से ठहाका मारते थे. लेकिन मैंने भी ठान लिया था, इसलिए सब कुछ दरकिनार करती गई. जब ड्राइविंग सीख ली तो किराए का आटो लेकर चलाना शुरू किया. यहां भी कम परेशानी नहीं हुई. लड़की होने के नाते आटो आसानी से नहीं मिलता था. कभी मिल गया कभी नहीं मिला यह सिलसिला चलता रहा.”
इसके बाद सुनीता ने परिवहन मंत्री को चिट्ठी लिखी. कॉमर्शियल लाइसेंस नहीं मिलता था. उसकी गुहार लगाई. इसके अलावा परिवार की नाराजगी का एक डर अलग था. सुनीता बताती हैं, ”मैं रुढ़िवादी ग्रामीण जाट परिवार से हूं. वह यह बात नहीं समझते, इसलिए मैंने उन्हें नहीं बताया था कि मैं आटो चलाती हूं. हालांकि आज सभी खुश होते हैं, लेकिन उनके लिए यह बात बहुत बड़ी थी, क्योंकि यह फील्ड ही ऐसा है, जहां आदमी निकलता है तो सड़कों का ही होकर रह जाता है. ऐसे में गांव की देहलीज लांघना मुश्किल था. लेकिन मेरा मानना है इंसान को कभी किसी काम में शर्म नहीं करनी चाहिए. जिसमें मन लगे वह काम करो, लोगों के नजरिये की परवाह मत करो. ”
जब ऑटो चलाना शुरू किया था उस समय को याद करते हुए सुनीता कहती हैं “उस समय सड़क पर निकलते समय भी कई समस्याएं सामने आईं थीं. तरह-तरह के लोग टकराते थे. कुछ का देखने का नजरिया गलत होता था तो कुछ देखकर ताज्जुब करते थे कि लड़की ऑटो चला रही है. सवारियां आसानी से भरोसा नहीं करती थीं. लोग सोचते थे कि लड़की है इसे रास्ता का क्या पता होगा कहीं गलत जगह न पहुंचा दे. लोगों के लिए एक महिला ऑटो चालक नई बात थी ऐसे में पढ़े-लिखे लोग तो बैठ जाते थे, लेकिन गांव से या बाहर से आए लोग नहीं बैठते थे. कुछ लोग यह बोलकर चले जाते थे कि यह ऐसे ही है, क्योंकि अच्छे घर की लड़की आटो नहीं चला सकती. यह बातें मुझे दुख जरूर पहुंचाती थीं, लेकिन मुझे पीछे नहीं हटा सकीं. आज कुछ लोग मेरे रेगुलर ग्राहक बन गए हैं, जो कॉल करके मुझे बुलाते हैं. रात को 2 बजे भी बेधड़क होकर आटो लेकर निकल पड़ती हूं. इससे निपटने के लिए सेल्फ डिफेंस भी आता है. ”
जब शीला दीक्षित ने की थी सवारी
सुनीता बताती हैं तीन-चार साल पहले मैं इंडिया गेट से होकर गुजर रही थी. उस समय पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अपनी गाड़ी से किसी कार्यक्रम में जा रही थीं. उनकी नजर मुझ पर पड़ी. उन्होंने मेरा ऑटो रुकवाया और अपनी लाल बत्ती की गाड़ी से उतरकर मेरे आटो में आकर बैठ गईं. वह मेरे ऑटो में बैठकर कार्यक्रम स्थल तक गईं थीं. बाकायदा उन्होंने मुझे किराया देते हुए शाबाशी दी. उस घटना ने मेरा और भी हौंसला बढ़ाया था.
सवारियों को मुझ पर पूरा भरोसा हैः कुसुम
ट्रांसपोर्टेशन में रोजगार तलाशने वाला एक और नाम हैं कुसुम. उत्तरी दिल्ली के बुराड़ी की रहने वाली कुसुम पिछले दो सालों से ई-रिक्शा चलाती हैं. वह मलकागंज से कैंप तक सवारियों को लाने ले जाने का काम करती हैं. मूल रूप से उत्तर प्रदेश के एटा की रहने वाली कुसुम ई रिक्शा चलाने से पहले दिल्ली के उत्तम नगर इलाके में कपड़ों की फैक्टरी में काम किया करती थीं. लेकिन मात्र 1000 रूपये मिलते थे. इतना कम वेतन होने के कारण घर का गुजारा नहीं चल पा रहा था. आमदनी बढ़ाने का जरिया सोच रही थी, तभी ड्राइविंग का खयाल दिमाग में आया. कुसुम बताती हैं, “ साइकिल से तो मैं पहले भी आती-जाती थी, तभी नजर पड़ी ई-रिक्शा पर. मैंने सोचा यह तो मैं भी चला ही लूंगी. एक ई-रिक्शा खरीद लिया. पहले उसकी प्रैक्टिस की. हालांकि, शुरू में थोड़ी घबराहट जरूर हुई. हैंडिल इधर-उधर हो जाता था. लेकिन काम करना था तो घबराई नहीं, बल्कि प्रैक्टिस करके हाथ साफ किया. आज ई रिक्शा चलाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं होती. न ही गाड़ी इधर-उधर भागती है. “
कुसुम बताती हैं, “ जब से ई रिक्शा चलाना शुरू किया है तो आमदनी भी ठीक-ठाक होने लगी है. हालांकि, कोई तय इनकम तो नहीं है. सबकुछ बैटरी के ऊपर निर्भर है. अगर बैटरी सही चार्ज है, दिनभर में 1000 रूपये की भी कमाई हो जाती है. इस फील्ड में आकर किस तरह की समस्याएं हुईं इस बारे में कुसुम बताती हैं, “परिवार की तरफ से कोई दिक्कत नहीं हुई. रही बात बाहर वालों की तो औरत को देखकर थोड़ी हैरानी तो सभी को होती है. अलग तरह से देखते हैं, लेकिन अब आदत हो गई है. दो साल हो गए हैं ई रिक्शा चलाते हुए, इसलिए सवारियों से भी जान-पहचान हो गई है. लड़कियां तो खुश होकर बैठती हैं और आदमियों को भी कोई दिक्कत नहीं होती.’’ कुसुम बताती हैं, “कोई भी काम पुरूष या महिला का नहीं है. इसे तो समाज ने बना दिया है. इस क्षेत्र में और भी महिलाओं को आना चाहिए. ज्यादा संख्या में महिलाएं सड़कों पर दिखाई देंगी तो लोगों को अचम्भा भी नहीं होगा और महिलाओं की सुरक्षा भी बढ़ेगी. “
कुसुम के ई-रिक्शा पर सवार एक नौकरीपेशा व्यक्ति से महिला ड्राइवर के बारे में पूछा तो उनका कहना था कि इस एरिया में ट्रांसपोर्ट की बहुत दिक्कत है. बसों की सर्विस भी कम है और ऑटो भी आसानी से नहीं मिलते. अगर इस समस्या को दूर करने के लिए एक महिला भी आगे आई है तो यह बहुत खुशी की बात है. इससे पता चलता है कि कोई भी काम महिलाओं के लिए मुश्किल नहीं है.
बढ़ रही है महिला कैब ड्राइवर की संख्या
ऑटो और ई-रिक्शा के अलावा दिल्ली की सड़कों पर महिला कैब ड्राइवर और टैक्सी ड्राइवरों की संख्या भी बढ़ रही है. यह महिलाओं की रोजी-रोटी का नया जरिया बन रहा है. इस क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में इजाफा करने के लिए कई गैर सरकारी संस्थाएं भी जुटी हुई हैं, जो फील्ड में घूम-घूम कर महिलाओं को ड्राइविंग की मुफ्त ट्रेनिंग मुहैया कराती हैं, ताकि वह इसे रोजगार के रूप में अपनाएं. इन्हीं में से एक है दिल्ली के ग्रेटर कैलाश स्थित आजाद फाउंडेशन. आजाद फाउंडेशन ने ‘सखा कंसल्टिंग विंग प्राइवेट लिमिटेड’ के माध्यम से 2008 में महिलाओं को ड्राइविंग सिखाने का कार्य करना शुरू किया था.

आजाद फाउंडेशन के प्रोग्राम डाइरेक्टर श्रीनिवास रॉय बताते हैं, “महिलाओं के लिए आजीविका के स्रोत अभी तक सिलाई-कढ़ाई, बुनाई जैसे पारंपरिक कामों में ही ढूंढे जाते थे लेकिन इनमें आय बहुत ही सीमति होती है. हमारे दिमाग में खयाल आया कि मोबेलिटी में ज्यादा अच्छा पैसा है. बेशक यह महिलाओं के लिए नये तरह का रोजगार होगा लेकिन इससे वह सशक्त भी बनेंगी और इनकम भी अच्छी होगी. खासकर दिल्ली में ट्रांसपोर्ट में काफी स्कोप है. जैसे-जैसे हमारी समझ बढ़ी हमने झुग्गी, बस्तियों में जाना शुरू किया. यहां जाकर देखा कि लोगों के दिमाग में एक हौवा है कि दिल्ली की सड़कें असुरक्षित हैं और घर सुरक्षित हैं. जबकि सरकारी आंकड़ा कहता है कि बलात्कार के सबसे ज्यादा मामले घरों में पाए जाते हैं.
आगे श्री निवास कहते हैं कि आज दिल्ली की 60 बस्तियों में आजाद फाउंडेशन की पहुंच है. यहां सालभर हमारी एक्टिविटीज चलती रहती हैं. ड्राइविंग सीखने के लिए लड़कियों और महिलाओं से बात करते हैं. 1000 महिलाओं से मिलने के बाद 10 महिलाएं ट्रेनिंग के लिए तैयार होती हैं. महिलाएं टैक्सी-कैब ड्राइविंग की ट्रेनिंग तो ले रही हैं, लेकिन उन्हें इस पेशे में बनाए रखना भी जरूरी है. “
श्रीनिवास का कहना है, “ यह पुरूष मानसिकता वाला समाज है. ऐसे में वुमेन फ्रेंडली पॉलिसी बनाना बहुत जरूरी है. सखा के पास आज 14 गाड़िया हैं और चांदनी, सरोज, भारती और शबनम समेत करीब 16 महिला कैब ड्राइवर हैं. रोज गाड़ी बुकिंग के लिए 100 कॉल आती हैं. इतनी डिमांड रहती है कि दो दिन पहले एडवांस बुकिंग करानी पड़ती है. सखा की कैब सर्विस दिल्ली-एनसीआर के लिए है, जो 24 घंटे उपलब्ध रहती है.
नौकरी छोड़ ड्राइवर बनने की तैयारी
दिल्ली-एनसीआर, फरीदाबाद, गुड़गांव एवं अन्य आसपास के इलाकों से महिलाएं बड़ी संख्या में ट्रांसपोर्ट में रोजगार के विकल्प तलाश रही हैं. ऐसा नहीं हैं कि यह महिलाएं इससे पहले कुछ नहीं करती थीं, बल्कि अपनी छोटी-मोटी नौकरी छोड़कर वह ड्राइविंग का रुख कर रही हैं. इनका मानना है कि नौकरी की तनख्वाह इतनी कम होती है कि पूरे महीने का गुजारा करना मुश्किल हो जाता है. ऐसे में ड्राइविंग से इन्हें अच्छी-खासी आमदनी की आस है. आजाद फाउंडेशन की ओर से दी जा रही ड्राइविंग ट्रेनिंग ले रहीं गुड़गांव निवासी अर्चना गुड़गांव से रोज दिल्ली आती हैं.

अर्चना बताती हैं कि इससे पहले वह घरों में साफ-सफाई का काम किया करती थीं. इसमें उन्हें तीन से चार हजार रुपये की आमदनी होती थी, जो खर्च के हिसाब से काफी कम थी. अर्चना कहती हैं, “पति भी कुछ नहीं करता. रोज ड्रिंक करके मेरे साथ मारपीट और गाली-गलौज करता सो अलग. पति की प्रताड़ना से तंग आकर मैं उससे अलग होकर दूसरी नौकरी ढूंढ रही थी, तभी अपने एक परिचित से आजाद की ड्राइविंग ट्रेनिंग का पता चला. मालूम करने पर पता चला कि गुड़गांव में यह ट्रेनिंग लेने के कोई ज्यादा फायदा नहीं होगा, दिल्ली में उनका अच्छा काम है. मैंने यहां आकर बात की. “ अर्चना को अपने ऊपर भरोसा है कि वह एक दिन अच्छी ड्राइवर बन जाएगी.
अर्चना के साथ उनकी भाभी मीना संतोषी भी यह ट्रेनिंग ले रही हैं. मीना भी घरों में साफ-सफाई करती थीं जहां उन्हें 4000 रुपये मिलते थे. अर्चना ने ट्रेनिंग का पता लगाया, तो उसके साथ मीना संतोषी ने भी ड्राइविंग में जाने का मन बना लिया. इसी तरह दिल्ली के सरिता विहार की रहने वाली आरती भी छोटी सी नौकरी करती थीं, जिसमें उन्हें बहुत कम पैसा मिलता था. पति भी परेशान करते था. आरती बताती हैं, “मेरे तीन बच्चे हैं. उनकी जिम्मेदारी उठानी मुश्किल हो रही थी. आसपास के लोगों ने मुझे सखा के बारे में बताया और कहा कि आप तो थोड़ी पढ़ी-लिखी भी हैं इतनी छोटी नौकरी करने से अच्छा है ड्राइविंग कर लो. ट्रेनिंग पूरी करने के बाद उम्मीद है कि मैं इतना कमा लूंगी कि घर का खर्चा और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई अच्छी तरह कर सकूं. पति के सहारे की जरूरत ही न रहे. “
ट्रेनिंग के दौरान आजीविका
ये महिलाएं अपनी नौकरी और काम छोड़कर आजाद फाउंडेशन की ओर से दी जा रही ट्रेनिंग ले रही हैं. इस दौरान इनकी आमदनी का कोई जरिया नहीं हैं. हालांकि, इन्हें आजाद की तरफ से कुछ सहारा दिया जाएगा. आरती का कहना है कि संस्था ने हमें मदद करने का भरोसा दिलाया है. लर्निंग लाइसेंस की ट्रेनिंग पूरी होने के बाद हमें घरों में जाकर सर्वे करने हैं. इसके लिए कुछ भुगतान किया जाएगा. अर्चना का कहना है कि 6-8 महीने जब तक कि हम ड्राइविंग सीख रहे हैं, थोड़ी परेशानी तो रहेगी, लेकिन ड्राइविंग सीखनी है तो इतना करना ही पड़ेगा. वैसे भी आगे चलकर सबकुछ ठीक होने की उम्मीद है. ट्रेनिंग के दौरान इन महिलाओं के व्यक्तित्व निर्माण के लिए इंगलिश स्पीकिंग क्लासेस और सेल्फ डिफेंस ट्रेनिंग भी दी जाएगी.

अन्य शहरों में भी दौड़ा रही हैं गाड़ी
दिल्ली की बात करें तो सखा के अलावा यहां द्वारिका सैक्टर 11 में स्थति मेरू कैब सर्विस भी महिला चालक वाली टैक्सी उपलब्ध कराती हैं. दिल्ली के अलावा मायानगरी मुंबई में भी प्रियदर्शिनी संस्था में कैब ट्रेनिंग दी जाती हैं. यहां महिलाओं को ड्राइविंग का प्रशिक्षण देकर उन्हें रोजगार भी दिया जाता है. प्रियदर्शनी के अलावा मुंबई में ही ‘वीरा कैब्स’ भी महिला चालक वाली टैक्सी सर्विस प्रोवाइड कराती है. एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन से लाने-ले जाने से लेकर दिनभर के लिए यह कैब हायर की जा सकती हैं.
इसके अलावा हैदराबाद में ‘शी हेल्प फाउंडेशन’ की शी कैब यूनिट महिलाओं को सेफ टैक्सी सर्विस प्रोवाइड कराती है. शी कैब की टैक्सी सर्विस में क्योंकि महिलाएं ही ड्राइवर होती हैं, इसलिए सुरक्षा के लिहाज से भी यह भरोसेमंद हैं. शी कैब की टैक्सी की एक खासियत और है कि यहां की कैब में केवल महिलाओं को ही ट्रेवलिंग करने की इजाजत है. शी कैब्स की महिला ड्राइवर शिक्षित होने के साथ-साथ मार्शल आर्ट में भी माहिर हैं, ताकि जरूरत पड़ने पर सवारी की सुरक्षा भी कर सकें. कैब में जीपीएस सिस्टम जैसे सिक्योरिटी भी हैं. इसके अलावा गुड़गांव, फरीदाबाद, जयपुर तथा अन्य शहरों में भी ट्रांसपोर्ट और ट्रैवलिंग के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में इजाफा हो रहा है.