माहवारी से जुड़े अंधविश्वास और साफ-सफाई के मसले पर लगातार बात किया जाना जरूरी है. इस मसले से जुड़ी शर्म और उसके कारण होने वाली समस्याएं तभी खत्म होंगी जब इस विषय पर बात हो और हर एक पक्ष पर चर्चा के जरिए जागरुकता लाई जाए.
ऐसे ही एक प्रयास के तहत गैर-सरकारी संस्थान ‘गूंज’ ने माहवारी पर एक प्रदर्शनी का आयोजन किया. 21, 29 जुलाई और 5 अगस्त को लगाई गई इस प्रदर्शनी में माहवारी से जुड़ी दिक्कतोें, अनछुए पक्षों, भ्रम और समाधान के प्रयासों को रेखांकित किय गया. इसमें संस्थान ने अपने अनुभव और आंकड़ों के आधार पर स्थिति को सामने रखने की कोशिश की.
माहवारी को लेकर गांव से लेकर शहरों तक कि स्थिति में खास अंतर नहीं है. इस सामान्य शारीरिक प्रक्रिया को लेकर शहरों में भी कई तरह के भ्रम और अंधविश्वास बने हुए हैं. जैसे पीरियड्स में मंदिर न जाना, रसोई में जाना, जमीन पर सोना और इस विषय पर कम बात करना आम बात है. हालांकि, हाइजीन के लिहाज से शहरों की स्थिति थोड़ी बेहतर है. यहां महिलाएं सैनेटरी पैड्स खरीदने में सक्षम है लेकिन गांव में उन्हें कपड़ा भी नसीब नहीं होता है.
प्रदर्शनी में लगीं तस्वीरें महिलाओं की स्थिति के अलग-अलग पहलुओं को उजागर करती हैं. जैसे कि एक तस्वीर पर लिखा है, ‘पेट तोे भर नहीं पाते हैं, कपड़ा कहां से लाएं’. महिलाओं की ये लाचारी गांवों में लोगों की खराब आर्थिक स्थिति का परिणाम है और इसका असर माहवारी में भी झेलना पड़ता है.
इसी तरह दिखाया गया है कि किस तरह महिलाएं माहवारी में इस्तेमाल कपड़े को शर्म के कारण खुले में नहीं सुखा पातीं और फिर आधा सूखा कपड़ा ही फिर से इस्तेमाल करने को मजबूर होती हैं और बीमारियों का शिकार बनती हैं.
इसी तरह प्रदर्शनी द्वारा माहवारी को लेकर व्याप्त भ्रमों को भी सामने लाने की कोशिशें की गई हैं. जैसे कि ये सोचना गलत है कि माहवारी में हाइजीन को लेकर सिर्फ गांवों की महिलाओं में जागरुकता का अभाव है. जबकि संस्था द्वारा जुटाए आंकड़े बताते हैं कि शहरों में भी कमोबेश यही स्थिति है. इसी तरह तस्वीरों और आंकड़ों के माध्यम से माहवारी के मुद्दे के कई अनछुए पहलुओं को उजागर करने का प्रयास किया गया है.