सदियों से महिलाओं को सुरक्षा देने के मुद्दे पर चर्चा की जाती रही है, लेकिन यह चर्चा हमेशा से अधूरी और पुरुषवादी सोच के अनुकूल ही रहती है. महिलाओं को सुरक्षा देने के लिए क्या क्या किया जाना चाहिए, इस पर सबसे ज्यादा चर्चा की जाती रही है. वर्तमान समय में राजनीतिक दल इसके ऊपर चर्चा करते हैं. मीडिया में चर्चा की जाती है. लेकिन, महिला सुरक्षा पर चर्चा के दौरान केंद्र में होता है, उसके चरित्र की रक्षा यानी किस तरह से महिलाओं को पुरुषों के हवस का शिकार होने से बचाया जाए. स्पष्ट तौर पर कहें, तो महिला सुरक्षा के ऊपर होने वाली चर्चाओं के केंद्र में होता है, उनके साथ होने वाले बलात्कार की घटनाओं पर अंकुश लगाना.
हालांकि, बलात्कार एक घिनौना अपराध है और उसे रोकने के लिए यथासंभव उपाय किए जाने चाहिए, लेकिन क्या महिला सुरक्षा को इसके ऊपर ही केंद्रित किया जाना सही मायने में महिला सुरक्षा को परिभाषित करना है. आखिरकार महिलाओं के अन्य अधिकारों की सुरक्षा के ऊपर भी उसी के अनुपात में ध्यान क्यों नहीं दिया जाता है. उनके दूसरे अधिकारों के ऊपर चर्चा करना उतना ही आवश्यक क्यों नही होता, जितना कि बलात्कार के ऊपर. महिलाओं के चरित्र की रक्षा और उनके अन्य अधिकारों की रक्षा के बीच इतना बड़ा अंतर क्यों स्थापित किया जाता रहा है. आखिरकार इसके पीछे किस तरह की मानसिकता काम करता है.
जहां तक महिलाओं के चरित्र की सुरक्षा का प्रश्न है, तो यह भी पुरुष बर्चस्व की मानसिकता की ओर ही इंगित करता है. किसी स्त्री के चरित्र का हनन किसी स्त्री के द्वारा नहीं बल्कि पुरूष के द्वारा किया जाता है और एक पुरूष के द्वारा शारीरिक संबंध बनाए जाने पर, दूसरे पुरुष के लिए उसे स्वीकार करना बहुत मुश्किल होता है. यह पुरुष मनोविज्ञान है, जिसके कारण पुरुषवादी समाज में भी, जहां महिलाओं के अन्य अधिकारों के हनन के ऊपर मौन सहमति होती है, उसके चरित्र रूपी अधिकार के हनन के ऊपर गंभीर चर्चा होती है, उसे सुरक्षित रखने के लिए किसी भी स्तर की सुरक्षा व्यवस्था बनाए जाने की मांग की जाती है और अगर सुरक्षा में चूक के कारण किसी स्त्री के चरित्र का हनन हो जाता है, तो उसे भी उसकी सजा भुगतनी होती है और यह सजा उस अपराधी को दी जाने वाली सजा से कहीं अधिक बड़ी होती है, जिसने उसके चरित्र को दूषित किया है.
दूसरी ओर महिलाओं के अन्य अधिकारों के लिए चर्चा करने और उसके लिए कठोर कानूनी प्रावधान के ऊपर अधिक जोर इस कारण नहीं दिया जाता है क्योंकि इससे पुरुषों को ऐसा लगता है कि उनके अपने विशेषाधिकार कमजोर पड़ जाएंगे. यही कारण है कि अभी तक जितनी कठोर सजा की मांग बलात्कार के अपराधियों के लिए की जाती रही है, उतनी कठोर सजा की मांग महिलाओं के अन्य अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए कभी नही की जाती है.
महिलाओं को संपत्ति में मिलने वाले अधिकारों पर चर्चा तक नहीं होती, बस एक कानून बनाकर झुनझुना थमा दिया जाता है. इसमें कोई दो राय नही है कि आर्थिक सशक्तीकरण का महिला सशक्तीकरण में बहुत अहम योगदान है, लेकिन महिलाओं को आर्थिक उपार्जन के साधन उपलब्ध कराने के लिए कोई बड़ी मुहिम नहीं चलाई जाती है. महिलाओं से जुड़े इसी तरह के कई मामले हैं, जिनके ऊपर न तो गंभीर चर्चा की जाती है और न ही उनके लिए कठोर कानूनी प्रावधान बनाए जाते हैं. यहां तक कि विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं को मिलने वाले जायज प्रतिनिधित्व को भी जाति, धर्म और ऐसे कई अन्य मुद्दों के बीच बांटकर, उपेक्षित कर दिया जाता है.
अब समय आ गया है कि महिला सुरक्षा पर होने वाली चर्चा का विकेंद्रीकरण किया जाए, उसका विस्तार किया जाए. सरकार हो या मीडिया, परिवार हो या समाज सभी की यह जिम्मेदारी है कि महिला सुरक्षा को सही तरीके से परिभाषित करें, सुरक्षा संबंधित मुद्दों का विस्तार करें तथा उन मुद्दों पर गंभीर चर्चा करें, जिनसे समाज में महिलाओं को समानता का दर्जा प्राप्त हो, नहीं तो यह चर्चा अधूरी ही कही जाएगी.