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सिर्फ मर्दों के लिए बनती हैं फिल्में बेचारी, असहाय और आइटम होती हैं फिल्मों में लड़कियां

असल जिंदगी में भेदभाव और शोषण झेल रहा स्त्री वर्ग फिल्मों की काल्पनिक कहानियों में भी इस दंश से बच नहीं पाता. फिल्मों में दिखाए जाने वाले सीन और किरदार में लड़कियां उसी परंपरागत भूमिका में नजर जाती हैं जिसे कदम-कदम पर एक मर्द की आवश्यकता होती है. कहानी पुरुष की होती है महिला उसमें केवल एक किरदार निभाती है. उसकी भूमिका पुरुष के आगे बौनी लगती है. यहां बात नायिका को स्क्रीन पर मिलने वाले समय और डायलॉग की नहीं है. हालांकि, इस मामले में भी हम बड़ा भेदभाव देखते हैं. परंतु यहां बात नायिका के जरिए एक आम लड़की के प्रस्तुतीकरण की है. उस लड़की के व्यवहार, बातों और कार्यों को किस तरह दिखाया जाता है. उसके किरदार को कितना महत्व मिलता है. अफसोस है कि सिनेमा में लड़कियों का प्रस्तुतीकरण बेहद निराशाजनक होता है. भूमिका निभाने वाली नायिकाएं चाहे असल जीवन में आत्मनिर्भर, बोल्ड और आजाद दिखें पर जब वह एक सामान्य लड़की बनती हैं तो परंपरागत किरदार में ही दिखती हैं.

यह परंपरागत किरदार आखिर है क्या? दरअसल, हमारा समाज लड़कियों के लिए खास नियम कायदे तय करता आया है. उन्हें शिक्षा और नौकरी से दूर रखा गया ताकि जीवनयापन के लिए पुरुष का सहारा लेना पड़े. शारीरिक रूप से दुर्बल रखा गया जिससे की पुरुष ताकत के बल पर उस पर नियंत्रण रख सके. महिला को पुरुष पर निर्भर बनाने का हर संभव प्रयास किया गया है. फिल्में इस दुषचक्र को तोड़ने में योगदान देने के बजाए स्त्री वर्ग पर लगे बंधनों को और कड़े करने का काम करती हैं. ऐसे किरदार और दृश्य रचे जाते हैं जो लड़कियों को आत्मनिर्भर होने की सीख न देकर परनिर्भर बना देते हैं. महिलाओं की छवि बेहद कमजोर होती है. वह शारीरिक और मानसिक रूप से दुर्बल और पुरुष पर आश्रित दिखाई जाती है. इसके विपरीत नायक हर मुसीबत का सामना करने वाला निडर, साहसी और सफल व्यक्ति दिखाया जाता है. यह मात्र भूमिका नहीं होती लड़की और लड़के के चरित्र और व्यवहार की व्याख्या होती है.

फिल्मों में दिखाए जाने वाले दृश्य और डायलॉग इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं. जैसे नायक (एक आम लड़का) को कमजोर करने के लिए उसकी मां, बहन या प्रेमिका का अपहरण करना या लड़के का अकेले गुंडों को पीटना और लड़की का चुपचाप खड़े रहना, यह सब लड़की को डरपोक और निर्बल प्रस्तुत करता है. साथ ही दिखाता है कि वह बोझ की तरह अपनी सुरक्षा के लिए लड़के के भरोसे है. वह खुद लड़ना और संघर्ष करना नहीं जानती. इससे प्रभावित होकर एक सामान्य लड़का खुद को हीरो समझने लगता है और लड़की बेचारी या बिना दिमाग वाली खूबसूरत गुड़िया नजर आती है.

लड़की को शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से भी कमजोर बनाकर पेश किया जाता है. किसी भी कठिन परिस्थिति से निकलने की पूरी जिम्मेदारी लड़के के हवाले कर दी जाती है. जैसे की ’मैं हूं न’ फिल्म के अंत में आतंकवादियों से निपटने का जिम्मा शाहरुख खान और जैद खान उठाते हैं. जैद खान कोई प्रशिक्षित सैनिक न होते हुए भी लड़ाई में जाते हैं और नायिकाएं बाहर ही रुककर उनका इंतजार करती हैं. इसी तरह ’धूम’ फिल्म की लगभग सभी सीरिज में चोरी करने और चोरों को पकड़ने का काम केवल लड़के ही करते हैं. लड़कियां केवल नाचकर मनोरंजन करती हैं. ’धूम 2’ में ऐश्वर्या राय का किरदार थोड़ा अलग माना जा सकता है परंतु उसे भी विस्तार नहीं दिया गया है.

केवल शारीरिक पक्ष पर जोर

जहां शारीरिक और मानसिक ताकत के बूते कुछ करने की बात हो तो पुरुष आगे बढ़ाए जाते हैं. परंतु जब किसी को रिझाना हो तो लड़कियों से आइटम डांस कराया जाता है. अक्सर फिल्मों में विलन को हराने के लिए जब भी नायक कोई योजना बनाता है तो लड़की लड़ाई न करके गुंडों को रिझाने का काम करती है. ’करण अर्जुन’ फिल्म का गाना ’छत पर सोया था बहनोई’ भी विलन को आकर्षित करने के लिए ही गाया गया है. अब फिल्मकार जवाब दें कि क्या लड़कियों में लड़ने या योजना बनाने की क्षमता नहीं है? उनके शारीरिक पक्ष को ही क्यों उभारा जाता है? यह उस सोच की पुष्टि है, जो कहती है कि लड़कियों के लिए सबसे ज्यादा जरूरी सुंदर और आकर्षक होना है. इसके अलावा उनके पास कोई काबिलियत नहीं. मुश्किल काम करना उनके बस का नहीं.

फिल्मों की खासियत बनने वाले आइटम सॉन्ग भी इसी कड़ी का हिस्सा हैं. इनमें लड़कियों का जमकर वस्तुकरण होता है। उसे खाने पीने के सामने की तरह प्रस्तुत किया जाता है. जैसे कि उसका जन्म ही पुरुष द्वारा उपभोग किए जाने के लिए हुआ है. सवाल तो यह भी है कि आइटम सॉन्ग केवल लड़कियां ही क्यों करती हैं? क्या फिल्मकारों की नजर में लड़कियां आइटम यानी की वस्तु होती हैं, जिनका जैसे चाहे इस्तेमाल कर सकते हैं. वहीं, तेरे नाम जैसी फिल्में संदेश देती हैं कि अगर लड़की से हां करवानी है तो उसका पीछा करो और उसका अपहरण कर लो. यह फिल्म बहुत प्रचलित भी हुई थी लेकिन इसमें लड़की की इच्छा और दिक्कतों से फिल्मकार को कोई सरोकार नहीं था.

फिल्मो की लड़कियां घरेलू ही क्यों

लड़कियों को केवल दुर्बल ही नहीं बल्कि नाकाबिल भी दिखाया जाता है. वे कमा नहीं सकतीं और पैसे के लिए लड़के की मोहताज होती हैं। अधिकतर फिल्मों में नायक की मां, बहन और प्रेमिका शायद ही नौकरी करती हैं. उनके खाने-पीने, पढ़ने, शादी का खर्चा घर का बाप, बेटा या भाई ही उठाता है. उसे ही सर्वेसर्वा की भूमिका में रखा जाता है. करण जौहर की फिल्म ’स्टूडेंट ऑफ द ईयर’ इसका सटीक उदाहरण है. फिल्म के अंत में एक लड़का बड़ा संगीतकार बन जाता है और दूसरा बैंकर. परंतु लड़की केवल बीवी बन पाती है. वह अपने करियर में कुछ नहीं करती. वह बहुत गर्व से पति की खरीदी हुई कार से उतरती है जिसमें उसकी मेहनत का एक पैसा भी नहीं लगा होता. इसी तरह साल 2000 में सुनील शेट्टी और रंभा अभिनीत फिल्म ’क्रोध’ में एक भाई पांच बड़ी-बड़ी बहनों की जिम्मेदारी उठाता है जैसे कि वह उनका बाप हो. सभी वन मैन अर्मी फिल्मों में नायक यानी की आम लड़का पुलिसवाला, डॉक्टर, टीचर, बॉडीगार्ड और गुंडा तक होता है लेकिन लड़की कुछ काम नहीं करती. उसे बस सुंदर और आकर्षक बनकर हीरो के इर्दगिर्द घूमना होता है. केवल नायक ही नहीं बल्कि विलन के किरदार में भी पक्षपात होता है. हैरानी की बात है कि बहुत ही कम फिल्मों में कोई लड़की मुख्य विलन होती है और नायक को बराबर की टक्कर देती है. इन फिल्मों से लगता है कि जैसे लड़कियां या तो मनोरंजन का साधन होती हैं या मुसीबत का कारण.

ये भूमिकाएं लड़कियों के लिए एक खास दायरा बना देती हैं. सदियों से हमारा समाज लड़कियों से जैसी उम्मीदें करता आया है वही हमारी फिल्में भी दिखाती हैं. लड़कियों के मन में गहरा विश्वास भर देती हैं कि वे दुर्बल और पुरुष से कमतर होती हैं. वह न कमाकर अपने परिवार का पेट भर सकती हैं और न कोई बड़ा काम कर सकती हैं. बार-बार लगातार ऐसी भूमिकाएं देखकर लोगों के अवचेतन मन में यही बातें घर कर जाती है. फिल्म के डायलॉग और फैशन का प्रचलित होना इसी का प्रमाण है कि सामान्य लोगों पर इनका कितना गहरा असर होता है. अब अगर लड़का फिल्में देखकर लड़कियों को आइटम गर्ल और लड़कियां, लड़कों को अधिक काबिल समझने लगें तो यह हैरानी वाली बात न होगी.

गौरतलब है कि हमारी फिल्मों में हमेशा से पुरुष वर्चस्व रहा है. सामाजिक तानेबाने के चलते फिल्मकार, कहानीकार और संगीतकार सभी में पुरुषों का प्रतिनिधित्व रहा है. इसी की झलक फिल्मों में भी नजर आती है जबकि खुद को रचनात्मक कहने वाले फिल्मकार चाहें तो लड़कियों की मजबूत और ताकतवर छवि प्रस्तुत कर सकते हैं. असल जिंदगी में बदलाव आने में समय लगता है लेकिन फिल्मों की कहानी और किरदार तो फिल्मकार ही गढ़ता है. अगर वे सच ही दिखाना चाहता है तो उन कारणों को दिखाए जिनके चलते लड़कियां शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से कमजोर बन जाती हैं. पग-पग पर उनके साथ होने वाले भेदभाव की हीककत पेश करे. परंतु फिल्मकार आसान तरीके अपनाते हैं और पुरुष दर्शक को खुश करने के लिए उन्हें काबिल और महिलाओं को बेवकूफ दिखाते हैं. अगर हमारी फिल्म इंडस्ट्री महिलाओं के साथ न्याय नहीं कर सकती तो स्त्री वर्ग को इसका त्याग करना चाहिए. साथ ही सरकार को भी फिल्मों में महिलाओं के वस्तुकरण और कमजोर प्रस्तुतीकरण पर सवाल उठाने चाहिए.

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