अपना व्यवसाय, अपनी पहचान और अपना रास्ता एक कठिन काम है और जब बात महिलाओं की हो, तो उनके लिए तो यह बेहद कठिन हो जाता है, क्योंकि उन्हें कठिन परिश्रम के अलावा अन्य कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है. इन बाधाओं से जुझकर कुछ महिलाओं ने अपना एक मुकाम बनाया है, जिनके संघर्ष की कहानी सुना रहा है नार उत्कर्ष का यह आलेखः
पैरामाउंट कोचिंग सेंटर, आज किसी पहचान का मोहताज नही हैं. प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने वाले लड़के-लड़कियां इसे अच्छी तरह जानते हैं. दिल्ली सहित विभिन्न शहरों में आज इसकी 20 से अधिक शाखाएं हैं, लेकिन इसे यहां तक पहुंचाने में जिन्होंने अपना दिन रात एक किया है, वह हैं इस कोचिंग सेंटर की डायरेक्टर नीतू सिंह.
लंबे समय से दिल्ली में रह रहीं नीतू सिंह झारखंड के गिरिडीह की रहने वाली हैं. उनके सफर की शुरूआत होम ट्यूशंस के साथ कड़े संघर्ष से हुई. वह उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी से एलएलबी की पढ़ाई करने दिल्ली आईं थीं. पिता का साया बचपन में ही उठ चुका था. इसके बावजूद उनकी माता ने बच्चों की पढ़ाई में कोई कसर नहीं छोड़ी. लेकिन, जब नीतू सिंह दिल्ली आईं तो उन्होंने होम ट्यूशन देकर खुद अपने रहने-खाने का खर्चा उठाने का फैसला किया. काफी समय तक ट्यूशन देने के बाद उन्होंने अपने इसी काम को और आगे बढ़ाने के बारे में सोचा और मुखर्जी नगर की ओर रुख किया.
उस समय के बारे में नीतू सिंह बताती हैं, उस दौरान अपने खर्च निकालने के लिए मैं होम ट्यूशन पढ़ाती थी. मैथ और इंग्लिश के अलावा बच्चे और कोई ट्यूशन पढ़ते भी नहीं थे. इस तरह दोनों विषयों पर पकड़ अच्छी होती गई. उसके बाद मैं मुखर्जी नगर यह देखने आई कि क्या यहां अपना ट्यूशन शुरु किया जा सकता है. यह मुझे बिल्कुल सही जगह लगी. लेकिन, यहां पहुंचना ही काफी नहीं था. चुनौती थी तो मुखर्जी नगर जैसी जगह पर, जो कोचिंग सेंटर्स का हब माना जाता है, अपनी पहचान स्थापित करना. उनके सामने सबसे पहली समस्या थी पूंजी की कमी.
उन्हें कुछ लोगों से पता चला कि कोचिंग सेंटर्स वाले कोलेबोरेट करके भी पढ़ाते हैं, जिससे उनका खर्च बंट जाता है. इस दौरान नीतू सिंह की अपने पति राजीव सौमित्र से कोचिंग की जगह को लेकर अचानक मुलाकात हुई. उनके पति मुखर्जी नगर में पहले से ही ’आरोहन’ नाम से सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिए कोचिंग सेंटर चला रहे थे. लेकिन, उनकी भी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी. तब दोनों ने साथ में कोचिंग शुरू करने का फैसला किया. नीतू सिंह ने एक ही जगह पर आरोहन कोचिंग के साथ अगस्त 2005 में पैरामाउंट कोचिंग सेंटर शुरू किया. वह बताती हैं कि उनके पति की क्लासिस दोपहर एक बजे तक खत्म हो जाती थीं और फिर वह अपनी लॉ प्रैक्टिस के बाद पैरामाउंट में दोपहर में क्लास दिया करती थीं. इस तरह काफी समय तक आरोहन और पैरामाउंट कोचिंग सेंटर एक ही जगह पर चलते रहे.
नीतू सिहं कहती हैं कि वह पैरामाउंट में पहले केवल स्पोकन इंग्लिश की ही क्लास देती थीं. फिर यूपीएससी में इंग्लिश अनिवार्य होने के बाद उन्होंने इस परीक्षा के अनुसार बच्चों को तैयारी कराना शुरू किया. स्टूडेंट्स ने उनके पढ़ाने के तरीके को पसंद किया और शरुआती पूंजी यूपीएससी में इंग्लिश पढ़ाने से आई. पर उस वक्त मुश्किल यह हुई कि यूपीएससी से अनिवार्य इंग्लिश हटाने की चर्चाएं होने लगीं और उन्हें भी लगा कि केवल एक विषय पर निर्भर रहकर वह अपना जीवन नहीं चला सकतीं. फिर वह मैथ भी पढ़ाने लगीं. तब एसएससी की क्लास के लिए आने वाले स्टूडेंट्स मैथ में भी एडमिशन लेने लगे. कुछ समय बाद दोनों विषय अकेले पढ़ाना संभव नहीं हुआ तो उन्होंने मैथ के लिए एक टीचर रख लिया.
कुछ बेहतर करने की उम्मीद में एसएससी की क्लास तो ली गई लेकिन फिर कमाई के मुकाबले खर्चा बहुत बढ़ गया. नीतू सिंह के अनुसार उस वक्त एसएससी की तैयारी के लिए मैथ, रीजनिंग और जीएस के लिए अलग टीचर रखने पड़े और एक बैच में करीब 10-15 बच्चे ही होते थे. फिर टीचर का भुगतान, किराया और घर खर्च इस सबके के लिए कई बार पुरानी बचत से भी पैसे उठाने पड़ते थे. कई बार तो एसएससी का एक बैच पढ़ाने के बाद दूसरे बैच को बंद करना पड़ता था. ऐसा भी लगा कि दूसरी क्लासिस बंद कर देनी चाहिए और सिर्फ इंग्लिश ही पढ़ानी चाहिए. फिर भी इन परिस्थितियों के बीच उन्होंने क्लासिस जारी रखीं. वह बताती हैं कि उन्होंने सोचा कि क्यों न ईमानदारी के साथ पढ़ाते रहें और लगातार कोशिश करें. उनके इन्हीं प्रयासों से बच्चों की संख्या बढ़ती गई, टीचर्स जुड़ते गए और कारवां बढ़ता चला गया.
नीतू सिंह अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए बताती हैं कि तब उन्हें कोंिचंग के कई काम खुद ही संभालने पड़तेे थे. वह इंक्वाइरीज भी करती थीं, इंटरव्यू बोर्ड में भी होती थीं और पढ़ाती भी थीं. गर्भावस्था में भी वह आराम के बजाए काम में ही जुटी रहीं. वह बताती हैं कि सात महीने के बाद डाॅक्टर ने उन्हें आराम के लिए कहा था, लेकिन काम बहुत था तो उन्होंने ऐसा नहीं किया. डिलिवरी के अंतिम दिन तक भी काम करती रहीं. इससे उन्हें यह भी अनुभव हुआ कि गर्भावस्था में भी औरत बहुत मजबूत होती है. फिर समय के साथ सारे काम व्यवस्थित होते चले गए.
अब पैरामाउंट कोचिंग सेंटर हर साल पहल स्काॅलरशिप भी देता है. इसमें बीपीएल स्टूडेंट्स के लिए एक स्काॅलरशिप टेस्ट रखा जाता है और कटआॅफ के आधार पर चुने गए बच्चों का खर्चा पैरामाउंट कोचिंग उठाती है. इस पेपर में 200 सवाल पूछ जाते हैं जिसमें कम से कम 50 सवाल सही होने अनिवार्य होते हैं. शारीरिक रूप से अशक्त बच्चों को उनकी अशक्तता के अनुपात में फीस में डिस्काउंट दिया जाता है. दृष्टिहीन बच्चों से कोई फीस नहीं ली जाती.
परिवार का सहयोग हमेशा रहा
नीतू सिंह और उनके पति कठिन परिस्थितियों में मिले और एक-दूसरे का साथ दिया. शुरुआती दौर में जब उनके पति आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे थे तो नीतू सिंह ने उनका सहयोग किया. आगे कोचिंग के हर अच्छे और बुरे वक्त में उनके पति साथ खड़े रहे. फिर दोनों मिलकर पैरामाउंट कोचिंग सेंटर संभालने लगे. वह कहती हैं कि उनकी मां ने उन्हें हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया. पिता की मृत्यु के बाद संबंधियों ने उनकी मां पर दबाव डाला कि लड़कियों को हिंदी पढ़ाओ और सरकारी स्कूल में भर्ती करो. यहां तक कहा गया कि गोएठा (गोबर के उपले) में घी नहीं सुखाते यानी लड़कियों को इंग्लिश पढ़ाकर गोबर के उपलों में घी सुखा रहे हो, जिसका फायदा नहीं. लेकिन, उनकी मां ने सभी का विरोध किया और अपनी बेटियों का स्कूल नहीं बदला.
बेटी भी नाम रोशन करती है
नीतू सिंह बताती हैं कि इस बार उनके पिता की 38वीं पुण्यतिथि पर उन्होंने गिरिडीह में वृद्धजनों के लिए केडी सिंह मेमोरियल फाउंडेशन बनाया है. यह फाउंडेशन बूढ़े लोगों को चिकित्सकीय सुविधाएं उपलब्ध कराता है. वह कहती हैं, इससे जहां जरूरतमंदों को बहुत फायदा मिला है, वहीं मेरे माता-पिता का भी मान बढ़ा है. इससे बहुत अच्छा संदेश गया है कि लड़के वंश कहलाते हैं तो लड़कियां भी अपने माता-पिता का नाम रोशन कर सकती हैं.
कामकाजी होना बहुत जरूरी
बाहर काम करना कितना जरूरी है इसके बारे में नीतू सिंह कहती हैं कि जब आप बाहर काम करते हैं तो आपका बच्चा आपको वैल्यू देगा क्योंकि वो मानेगा कि उसकी मां बेवकूफ नहीं है. साथ ही कभी अपने आत्म सम्मान को चोट न पहुंचाने दें. हमेशा देखें कि कल मैं जहां थी आज मैं उससे बेहतर काम कर पा रही हूं कि नहीं. इसके बाद आसमान आपका है.
वह कहती हैं कि जब आप कमाते हैं तो आपके लिए नीचे से ऊपर तक सबका नजरिया बदलता है. आप घर में खाना बनाकर पति को खिलाते रहिए लेकिन वो आपका सम्मान नहीं करेगा. आपको ग्रांटेड लेगा और यही कहेगा कि घर में करती क्या हो तुम. बाहर काम करके पैसा लेकर आते हैं, तो वह मानेगा कि आप भी समान रूप से काबिल हैं और ज्यादा नौटंकी की तो छोड़कर चली जाएगी क्योंकि आप आर्थिक रूप से उस पर निर्भर नहीं हैं. इसलिए छोटा-बड़ा कुछ भी काम करिए लेकिन कमाएं जरूर, उससे संतुष्टि और सम्मान मिलेगा.