वरिष्ठ हिंदी साहित्यकार एवं हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष मैत्रैई पुष्पा बेबाक होकर महिला संबंधित मुद्दों पर लिखती रही हैं. उनकी धारदार लेखनी आलोचकों के निशाने पर भी रही है. उनके विचारों से रूबरू होकर और उनके लिखे को पढ़कर अक्सर मन में सवाल उठता है कि वह ऐसी क्यों हैं? उनके विचारों में बदलाव कैसे आया? दरअसल, इसके पीछे उनकी परवरिश और परिवेश दोनों कारण हैं. उनका बचपन कैसा बीता, मां से क्या सीख मिली या समाज में क्या देखा, विवाह और उसके बाद का जीवन कैसा रहा ऐसी ही कुछ खास और अनजानी बातें, मैत्रेई पुष्पा ने नारी उत्कर्ष से साझा कीं-
समाज में लड़के और लड़कियों के बीच होने वाले भेदभाव को देखकर मुझे लगता था कि ऐसा क्यों होता है. इसके ऊपर कुछ माहौल का भी असर था. मैंने अपने घर में कभी पुरुष वर्चस्व देखा ही नहीं. बचपन में ही मेरे पिता का देहांत हो गया था. मैंने उन्हें सिर्फ फोटो में ही देखा है. मेरा कोई भाई नहीं है. घर में मां और मैं सिर्फ दो ही लोग रहते थे. मां ने मुझ पर कभी वह बंदिशें नहीं लगाईं, जैसे हमारे समाज में लड़कियों पर लगा दी जाती हैं. उन्होंने उस जमाने में मुझे पूरी आजादी दी.
मुझे कभी लड़कियों के स्कूल में पढ़ने को नहीं मिला. झांसी में हम गांव में रहा करते थे, तो वहां हम कहां जाते? मेरी मां नौकरी करती थीं और उनकी ड्यूटी गांव में लगती थी. फिर दूसरा उस वक्त लड़कियों के पढ़ने का रिवाज नहीं था. गांव में लड़कों को ही पढ़ाते थे. लड़कियों के लिए अगर पांचवी तक स्कूल है, तो बस उतना ही पढ़ सकती थीं. इससे आगे नहीं. ज्यादा हुआ और अगर गांव में आठवीं तक की सुविधा है, तो आठवीं तक पढ़ाकर लड़की के लिए पढ़ाई खत्म.
लेकिन, मेरी मां ने ऐसा सोचा ही नहीं. उन्होंने मुझसे कहा कि आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए गांव से बाहर जाओ. लड़कियां बाहर पढ़ने जाती नहीं थी. मुझे लड़कों के साथ जाना पड़ता था. मैंने अपनी मां से मना किया, तो उन्होंने साफ कह दिया कि अब जब लड़के ही जा रहे हैं, तो उन्हीं के साथ जाओ.
मैं साइकिल पर लड़कों के साथ जाती. इस तरह मैंने अपने घर में कभी ऐसा माहौल नहीं देखा. मैंने घर में करवा चौथ पूजते नहीं देखा. मेरे पिता ही नहीं थे. तो मेरी मां ने कहा यह सब झूठी बात है, करवा चौथ वगैरह करना. मैंने पूजी थी करवा चौथ, लेकिन उसी साल तो तेरे पिता नहीं रहे. मैंने कासे के बिछुए पहने, लेकिन तेरे पिता तो मर गए. अगर कहूं, तो मां ने मुझे यह सब चीजें सिखाई नहीं या कहूं कि मैंने अपने घर में देवता पूजते देखे ही नहीं. मैंने कर्मकाण्ड होते हुए देखे ही नहीं.
मां ने लिया बेटी को पढ़ाने का संकल्प
जिस वक्त मां की शादी हुई थी उस वक्त वह पढ़ी-लिखी नहीं थी. 17 वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह हो गया था. और महज 22 वर्ष की उम्र में वह विधवा हो गई थीं. विधवा होने के बाद उन्होंने पढ़ाई शुरू की. अनुमान लगाया जा सकता है कि उनके सामने कितनी विपरीत परिस्थिति आई होंगी. पिता जी के गुजरने के बाद उन्होंने अपने ससुर यानी मेरे बाबा से पढ़ने का आग्रह किया. पिता के बाद मां ने पर्दा करना त्याग दिया था.
बाबा से उन्होंने कहा कि पिताजी अब हम दोनों को ही रहना है. उस समय घर की स्थिति इतनी खराब थी कि घर में आदमी की मृत्यु के बाद आटे के पिंड रखे जाते हैं, वह तक हमारे घर में नहीं थे. किसी और ने दान दिए तब पिताजी का पिण्ड दान हुआ. तीन-तीन दिन भूखे रहे हम. एक गाय थी हमारे यहां तो बस उसका दूध मेरे लायक हो जाता. उस वक्त अगर कोई और महिला होती, तो वह कुछ और-और बातें सोचती. लेकिन, मेरी मां ने बाबा से कहा कि पिता जी मैं अब आगे पढ़ना चाहती हूं.
उस वक्त पढ़ने का तो सोच भी नहीं सकते थे. लड़के पढ़ा करते थे. दूसरा वह कोई बेटी नहीं थी, बहू थी. बहू को पढ़ाने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती. गांव से सात-आठ किलोमीटर दूर स्कूल था. मेरे दादा अंगूठा छाप थे, लेकिन मां से कहा कि ठीक है तुम पढ़ने जाओ. ऐसे बाबा ने मुझे रखा. मां सुबह जाती थीं और शाम को आती थी. वहां से लौटते वक्त घर का सामान लेकर आतीं. थोड़ा बहुत जो खेत था, उसका काम भी वही देखतीं. मां ने कभी यह समझा ही नहीं कि लड़की है, तो निकलना नहीं चाहिए. होने को तो मेरी मां के लिए भी दस खतरे हो सकते थे.
मुझे याद है जब मैं बड़ी हो गई थी, तो कभी-कभी मां मुझे ले जाती थी. जैसे ही गांव से बाहर निकलते, तो लोग कहते कि अरे ये औरत न बावली है, ये वहां जाती है पढ़ने रोज-रोज झोला लेकर. कोई कहता क्यों री तेरा ब्याह हो गया. ये कौन है तेरी. यह सब चलता रहा और मां की पढ़ाई भी होती रही. ऐसा भी मौका आया जब मैं और माताजी साथ-साथ पढ़े. वह खुद भले न पढ़ीं थीं, लेकिन उन्होंने यह संकल्प लिया कि बेटी को जरूर पढ़ाऊंगी.
मां को बस रिजल्ट चाहिए था
मेरा एक बहुत उदास बचपन बीता है, क्योंकि पिता तो बचपन में ही चले गए फिर बाबा भी नहीं रहे. मां की पोस्टिंग अलग-अलग जगह हुई. मैं रह गई अकेले. मुझे पढ़ाने के लिए गांव में लड़कियों के स्कूल, तो क्या को-एजुकेशन स्कूल भी नहीं थे. लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज न था. मां ने फिर मुझे घर-घर रखा. लोगों से कहा कि मैं तुम्हें पैसे दूंगी, खाने का अनाज भी दूंगी. आप मेरी बेटी को रख लो. एक महीने का 5 मन अनाज देती थी मां. बावजूद इसके वो लोग मुझसे बहुत काम कराते थे. बर्तन झाड़ू-पौंछा सब कराकर स्कूल जाने देते थे. मां को यही था कि मेरी बेटी पढ़ जाए. वह बस एक ही बात बोलतीं कि मुझे रिजल्ट चाहिए बस. वह परेशानी नहीं आने देना चाहती थी.
वह कहती थीं कि जो दिक्कत हो मुझसे कहना. ज्यादा परेशानी होती तो मैं उन्हें चिट्ठी लिखती. फिर वह मुझे पांच या दस रुपये का मनी ऑर्डर कर देती थीं. तब मैंने देखा कि हम तो इतनी मुश्किलों से निकल आए. किसी रुकावट को हमने रुकावट नहीं माना, जबकि कोई पुरुष हमारे आसपास नहीं था हमारी रक्षा करने के लिए. तो यह रक्षा के नाम पर पिता, पति, पुत्र और फलाने-ढिकाने क्यों बनाए गए हैं? क्या यही हमारी रक्षा कर सकते हैं? अगर ऐसा है, तो मैंने अपनी रक्षा कैसे की? मेरे साथ जब-जब किसी ने गलत व्यवहार किया तब-तब मैंने बदलाव की आवाज उठाई. मैं 11-12 में थी तब प्रिंसिपल साहब से मेरा झगड़ा हुआ क्योंकि प्रिंसिपल ने मेरे लिए एक चक्रव्यूह ही रच दिया. मैंने तब भी हिम्मत के साथ उसे सबक सिखाया था.
‘मां ने कहा था कि चिट्ठी वाले लड़के से कर ले शादी’
बारहवीं के बाद आगे की पढ़ाई की. इस दौरान मैंने मां से अपनी शादी की बात कही. मां ने कह कि शादी बंधन है. वह कहतीं कि मेरी बेटी तो कुपुत्री निकली. इसे इतना पढ़ाया लिखाया इसे कोई समझ नहीं है. तुलसी गाय बजाय के देत काठ में पाव…. यह कहावत उन्होंने पढ़कर सुना दी. लेकिन, उनकी सहेली ने कहा कि कोई बात नहीं. शादी तो करोगी ही इसे क्या जिंदगी भर कुंवारी रखोगी. इसकी शादी कर दो. इस तरह वह शादी करने को तैयार हुईं.
लेकिन, तब भी उन्होंने मुझसे कहा कि लाली उससे कर ले, जो तुझे प्रेम की चिट्ठी लिखता था. मैं बात करूंगी उससे. मैंने मना कर दिया, जबकि होता उल्टा है कि लड़की लड़ती है. फिर भी मां उसके घर चली गईं बिना बताए. बोलीं कि वो तो बहुत अच्छा है. मेरी बड़ी खातिर की. मैंने मां को बताया कि मुझे उससे शादी नहीं करनी, मैं तो डॉक्टर या इंजीनियर से शादी करूंगी. तो बोलीं कि कौन करेगा? माता जी कहती कि मैं दहेज नहीं दूंगी. जन्म पत्री नहीं मिलाऊंगी. ऐसे ढोंग नहीं कर सकती मैं. मैंने कहा कि नहीं करेगा कोई, तो नहीं करूंगी शादी. कुंवारी रहूंगी ऐसे ही. इससे माताजी को थोड़ा बल मिला कि कुंवारी रह जाए शायद.
मेरा जीवन ऐसा रहा है कि मैं मैच्योर बहुत जल्दी हो गई. उन्नीस साल में मेरी शादी हो गई. दरअसल, प्रेम विवाह मैंने इसलिए नहीं किया, क्योंकि मैंने सोचा था कि एक फैसला मैं मां को देती हूं. उनके हक में ताकि उन्हें लगे कि यह मैंने किया. दूसरे आदमी को अपनी फैमिली में जोड़ा वह मैंने जोड़ा. बेचारी मां निकली अपना झोला लेकर. कोई आदमी नहीं लिया उन्होंने. मां जन्मपत्री और फोटो की बजाय मार्क्सशीट लेकर निकला करती थीं. दहेज देने को साफ मना कर देतीं. कई जगह बात नहीं बनती.
फिर रिश्ते के एक जीजा जी थे, उन्होंने रिश्ता बताया. तो वह फिर यहां चली आईं. मेरे पति ने देखा तो उन्हें भी यही कहा कि मेरी लड़की की मार्क्स शीट यह है, तुम मुझे भी अपना कोई प्रूफ दिखा दो. तुम पढ़ रहे हो मुझे पता है लेकिन मैं झांसी रहती हूं. मां ने मुझे देखने को कहा कि लड़की देख लो वह मेरे जैसी नहीं है. इस पर भी मेरे पति ने कह दिया कि नहीं कोई जरूरत नहीं है. आपने मुझे देख लिया काफी है. इस तरह माताजी ने खुश होकर मेरी शादी कर दी.
इसलिए नहीं किया प्रेम विवाह
शादी के पहले लड़के कुछ औऱ हुआ करते हैं और बाद मे कुछ. सवाल है कि प्रेम विवाह क्यों नहीं किया. जिससे मुझे प्रेम था मैं उसे आज भी प्रेम करती हूं. उसकी कद्र करती हूं. मैंने प्रेम आज भी नहीं तोड़ा. चिट्ठियां सहेज कर रखी हैं. हालांकि, मैंने बहुत ज्यादा कभी बात नहीं की. मैंने कभी उस चीज को तोड़ा नहीं उसने भी नहीं तोड़ा. लड़की सारी दुनिया से लड़कर प्रेम विवाह करती है. उसके बाद तुम पति बनकर उसी भूमिका में आ जाओ तो फिर अरेंज मैरिज क्या बुरी है. मेरी इस बात का विरोध भी होता है. प्रेम विवाह से बचना चाहिए.
हमारे मन में एक कोमल सी भावना होती है. जिसे संजोकर रखते हैं वह विवाह के बाद टूट जाती है. क्योंकि विवाह के बाद अपनी स्थिति, बच्चों की स्थिति, आजीविका चलाने की स्थिति यह सब आ जाती हैं. प्रेम तो कहीं पीछे रह जाता है. जो भावना पाले थी वह आज भी है. मेरी रूचि साहित्य में जागी. जब मैंने किताब लिखी तो पहली प्रति उसे ही दी. जबकि तीस साल से मिली ही नहीं थी. मैंने गांव के पुराने पते पर भेज दी. साथ में यह भी लिखा कि तुम मुझे भूल गए होगे. उसने भी चिट्टी लिखी कि मैं तुम्हें एक पल भी नहीं भूला. वह भावना आज भी जिंदा है, क्योंकि हमने उसे किसी भी तरह नजदीक आने के लिए खत्म नहीं किया.
चल पड़ा लिखने का सिलसिला
जब औरत गर्भवती होती है, तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता. लेकिन, मेरे साथ उल्टा हुआ. मैं तीन दिन कमरे में पड़ी रोती रही. इसके बाद घर में बच्चों की जिम्मेदारी आ गई. उन्हें पढ़ाना था. तीन बेटियों की मां बनी. मैंने बेटियों से कहा कि तुम लड़की हो, इसलिए तुम्हें खुद को साबित करना होगा. यह समाज ऐसा ही है, जहां लड़की को साबित करना पड़ता है, लड़के को नहीं. इसलिए, तुम्हें डॉक्टर बनना है.
जिस दिन सबसे छोटी बेटी का डॉक्टरी में सलेक्शन हो गया, उस दिन मैंने कलम उठाई. फिर पत्रिकाओं में भेजी. पहली कहानी मेरी ‘इदम’ नाम की पत्रिका ने छापी. इस तरह लिखने का सिलसिला चल पड़ा. फिर कई किताबें लिखीं. लिखे पर कई सवाल उठाए गए, लेकिन फिर मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. लड़की के लिए महिलाओं के लिए समाज ने एक जाल बुन दिया है. हमें उसमें उलझने से खुद को बचाना होगा. हमें अपनी जिंदगी का फैसला खुद लेना है. कैसी जिंदगी चाहिए यह हम तय करेंगे पुरुष नहीं.
(फोटो साभार: मैत्रेई पुष्पा फेसबुक अकाउंट)