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मेकेनिकः कम शिक्षित महिलाओं के लिए रोजगार का बड़ा जरिया

Image Source: नारी उत्कर्ष

मेकेनिक एक ऐसा काम है जहां उच्च शिक्षा न होने पर भी आप इसे आजीविका का साधान बना सकते हैं. लेकिन, इस जहां इस क्षेत्र में लड़कों की संख्या बहुत अधिक है वहीं, लड़कियां नदारद हैं. मेकेनिक के काम में लड़कियों के आने का चलन अभी बहुत ही शुरूआती दौर में है. जो आती भी हैं वो सिर्फ किसी कंपनी में काम करती हैं. दरअसल, इसका बहुत बड़ा कारण है कि हम लड़कियों को इन कामों के लायक मानते ही नहीं हैं. यह एक तरह से भारी काम है और बहुत शारीरिक शक्ति की मांग करता है. अमूमन यह धारणा होती है कि लड़कियां शारीरिक रूप से कमजोर होती हैं इसलिए वह यह काम नहीं कर पाएंगी. यहां तक कि अगर लड़की खाली भी बैठी हो तो उसे कहीं पर मेकेनिक के काम में नहीं लगाया जाता. अब स्थिति यह है कि इस क्षेत्र में सिर्फ लड़के ही काम करते हैं, तो माता-पिता को अपनी लड़की को वहां भेजने में और दिक्कत महसूस होती है.

मेकेनिक का काम दो तरह से सीखा जाता है. एक तो वो जो बिना कोई तकनीकी शिक्षा के किसी गैरेज या ऑटोपार्ट्स की दुकान में काम सीखते हैं और आगे सिर्फ अनुभव के आधार पर किसी कंपनी में नौकरी पाते हैं. दूसरा वर्ग वह है जो किसी तकनीकी संस्थान से प्रशिक्षण प्राप्त कर कंपनियों में नियुक्त होते हैं. इन दोनों ही क्षेत्रों में लड़कियां न के बराबर दिखती हैं. सड़कों या गली-मोहल्लों में खुली हुई मेकेनिक की दुकानों पर तो उनकी संख्या नगण्य है.

ऐसे में गैरेज और सर्विस सेंटर में बात करके हमने जानने की कोशिश की इस क्षेत्र में लड़कियों की उपस्थिति की वास्तविक स्थिति क्या है, क्यों है और इस बारे में लोगों का नजरिया क्या है? इसमें जहां कई लोगों ने लड़कियों के मेकेनिक होने पर आश्चर्य जाताया तो वहीं, कुछ एक ने उनका इस काम में स्वागत भी किया. हालांकि, किसी ने तो लड़कियों को मेकेनिक के काम के काबिल ही नहीं माना.

गैरेज की स्थिति

पहले बात करते हैं गैरेज की. यहां बिना किसी डिग्री के सीधे काम सीखा जाता है. इस संबंध में मंगोलपुरी में स्थित बालाजी ऑटो स्पेयर पार्ट्स के मालिक रोहतार सिंह बताते हैं कि उनकी दुकान कई सालों से यहां पर है और गाड़ियों की वॉशिंग, रिपेयर, पंचर और मेकेनिक की अन्य सर्विस दी जाती है. उनके यहां अब तक एक भी लड़की ने मेकेनिक के तौर पर काम नहीं किया है. उन्होंने बताया कि इस काम में पहले लड़के ट्रेनी के तौर पर लगते हैं और दो से तीन साल में काम सीख जाते हैं. इसके बाद उन्हें तनख्वाह दी जाने लगती है. इस काम में लड़कियों के आने के बारे में रोहतार सिंह कहते हैं कि लड़कियां भी जरूर यह काम कर सकती हैं. जब कुश्ती तक लड़ सकती हैं तो यह क्यों नहीं. बस थोड़ा माहौल ठीक नहीं होता क्योंकि अधिकतर तो अभी लड़के ही इस काम में रहते हैं और कई ग्राहक भी बहुत बदतमीज आते हैं.

रोहतार सिंह ने तो कुछ दिक्कतें गिनाईं लेकिन एक अन्य गैरेज वाले तो लड़कियों को मेकेनिक के काम में ही रखने से मना कर दिया और बहुत बेतुका तर्क दिया. विजय ऑटो सेंटर के मालिक कैलाश का कहना था कि यहां काम करने वाले लड़कों के कोई गलती करने पर हम उन्हें मार तो लेते हैं लेकिन लड़की के साथ थोड़ी न ऐसा कर पाएंगे. उनसे पूछा गया कि मारना तो दोनों के लिए ही गलत है तो उन्होंने कहा कि कोई नुकसान करेगा तो मार खाएगा ही. मेकेनिक का काम कर रहे लोगों के लिए लड़कियों के मेकेनिक होने की बात बहुत ही हैरनीभरी थी. यह बात सुनने वाले हर एक व्यक्ति के चेहरे पर हैरानी, प्रश्न और कश्मकश सी दिख रही थी. 10-12 साल से मेकेनिक का काम कर रहे खजान ने तो यह सुनकर तपाक से कहा, ’लड़कियां!, वो क्या करेंगी यहां? वो काउंटर पर हो सकती हैं’. ऐसा नहीं था कि वो इस बात को मजाक में ले रहे हों बल्कि लड़की का मेकेनिक होना उनकी कल्पना से ही परे था.

तकनीकी प्रशिक्षण में न के बराबर संख्या

लगभग यही स्थिति तकनीकी प्रशिक्षण यानी डिग्री लेने के बाद लगने वाली नौकरियों की भी है. मामला और स्पष्ट होता है औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (आईटीआई) में प्रवेश लेने वाली लड़कियों की संख्या से, जहां राजधानी जैसी जगह पर केवल 10 प्रतिशत लड़कियां ही तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त कर रही हैं. आईटीआई भारत सरकार द्वारा स्थापित ऐसा संस्थान है जो बच्चों को विभिन्न कौशल में प्रशिक्षित करता है. यहां मेकेनिकल, इलेक्ट्रिकल, स्टेनोग्राफी, ग्र्राफिक और सिलाई-कढ़ाई आदि कार्यों का प्रशिक्षण दिया जाता है. आईटीआई के विभिन्न संस्थानों में लड़कियां प्रवेश तो लेती हैं लेकिन उनकी संख्या सभी कोर्सेज में बराबर नहीं होती.

दिल्ली की पूसा रोड स्थित आईटीआई के प्रिंसिपल लोकपाल जी बताते हैं कि लड़कियों की संख्या कटिंग, स्यूइंग, ड्राफ्ट मैन सिविल, इंटीरियर डिजाइन के कोर्सेज में अपेक्षाकृत ज्यादा रहती है. इलेक्ट्रॉनिक्स और ऑटोमोबाइल के ट्रेड में अब लड़कियां आने लगी हैं लेकिन, मेकेनिकल ग्रुप में लड़कियां प्रवेश नहीं लेतीं. खासतौर से वर्कशॉप में एक भी लड़की नहीं है. वर्कशॉप के अंतर्गत टर्नर, फिटर और मशीनिस्ट जैसे काम आते हैं. वह इसका बहुत बड़ा कारण इस भ्रम को बताते हैं कि लड़कियां भारी काम नहीं कर पाएंगी. हैवी मशीनरी को मैनेज कर केंगी या नहीं. लड़कियों और उनके माता-पिता के दिमाग में यही बातें बैठी हुई हैं. साथ ही लड़कियों की सुरक्षा का प्रश्न भी घरवालों को इस क्षेत्र में लड़कियों को आगे आने से रोकता है.

लोकपाल जी इस बात से सहमति जताते हैं कि अगर फैक्ट्री जैसी जगहों पर लड़के और लड़कियों की संख्या बराबर हो जाती है तो बेटी के लिए मां-बाप का डर अपने आप कम हो जाएगा लेकिन उसके पहले सभी को अपनी बेटियों को इन क्षेत्रों में आने के लिए प्रोत्साहित करना होगा. साथ ही वह बताते हैं कि कंपनियां भी इन क्षेत्रों में लड़कों को ही प्राथमिकता देती हैं, इससे भी लड़कियों के लिए अवसर कम हो जाते हैं.

यह स्थिति तब है जब आईटीआई में लड़कियों के लिए हर ट्रेड में 30 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है और उन्हें कोर्स की फीस भी माफ है. इसके बावजूद भी लड़कियों की 30 प्रतिशत सीटें भी नहीं भर पातीं. पूसा आईटीआई में कुल 1800 विद्यार्थीं हैं, जिनमें लड़कियों की संख्या केवल 250 के करीब है. हालांकि, कुछ लड़कियों ने यह प्रमाणित भी किया है कि तकनीकी क्षेत्रों में वह भी बेहतर काम कर सकती हैं. लोकपाल जी के अनुसार बॉडी रिपेयर एंड पेंट ट्रेड में दो लड़कियों ने प्रवेश लिया था और टोयोटा कंपनी में उन्हें सुपरवाइजर के तौर पर नौकरी भी मिली. 21 लड़कों में वे सिर्फ दो ही थीं जो इस ट्रेड को सीख रही थीं और किसी भी तरह से कमतर नहीं थीं.

सविर्स सेंटर में पड़ताल

जिस तरह से लड़कियां कोर्सेज में कम प्रवेश लेती हैं उसी तरह गाड़ियों के सर्विस सेंटर में काम करने वाली लड़कियों की संख्या भी कम है. यहां पर अत्यधिक अनुभव प्राप्त या डिग्री/डिप्लोमा धारकों को नियुक्त किया जाता है. इस बारे में उद्योग नगर में स्थित टीवीएस सर्विस सेंटर के सुपरवाइजर गौरव कुमार झा कहते हैं कि लड़कियां मेकेनिक का काम तो कर सकती हैं लेकिन यहां का माहौल सुरक्षित नहीं है. कम या ज्यादा पढ़े-लिखे हर तरह के लड़के यहां काम करते हैं, जिससे लड़कियों को दिक्कत हो सकती है. उनके यहां भी लड़कियां सिर्फ कॉल सेंटर में हैं, मेकेनिक के तौर पर नहीं. गौरव खुद आईटीआई से आए हैं और उनके बैच में भी केवल एक ही लड़की थी. हालांकि, टीवीस कंपनी की ओर से लड़कियों को मेकेनिक के जॉब पर रखने की मनाही नहीं है. कोई लड़की आना चाहे तो बेझिझक आ सकती है.

यही स्थिति हीरो कंपनी के सविर्स सेंटर में भी है. यहां भी लड़कियों को मेकेनिक या हेल्पर के तौर पर रखने की मनाही नहीं है लेकिन फिर भी कोई लड़की यहां पर यह काम नहीं करती. हीरो कंपनी के सुपरवाइजर महेंद्र बताते हैं कि इस सर्विस सेंटर में भी अनुभव या डिग्री/डिप्लोमा के आधार पर नौकरी दी जाती है.

इन सभी कंपनियों में लोगों का व्यवहार फिर भी सकारात्मक था लेकिन महिंद्रा कंपनी में जो हुआ उससे तो लगा कि लड़कियों के लिए रोजगार का ये क्षेत्र खोलने के लिए अभी बहुत मेहनत करने की जरूरत है. महिंद्रा के सर्विस सेंटर में रिलेशनशिप मैनेजर राहुल ने लड़कियों के मेकेनिक का काम कर पाने से साफ इंकार ही कर दिया. उनका कहना था कि यह काम बहुत भारी होता है. गाड़ियों के हैवी पाट्र्स उठाने पड़ते हैं, तो लड़कियां यह सब नहीं कर पाएंगी. हां, इलेक्ट्रिकल या वाइरिंग के क्षेत्रों में लड़कियां काम करती हैं. पर उनके पास इसका कोई जवाब नहीं था कि अगर लड़कियां मेकेनिक का काम नहीं कर सकतीं तो आईटीआई में इस कोर्स में लड़कियों के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण क्यों है? आखिर सरकार ने भी लड़कियों की काबिलियत मानी है. वहीं, इसी सर्विस सेंटर के टेक्निकल एडवाइजर दीपक और मेकेनिक रंजीत सिंह साफ-साफ कहते हैं कि लड़कियों के लिए यह काम मुश्किल नहीं. सीखें तो वह भी कर सकती हैं.

बातचीत से पता चलता है कि इस क्षेत्र में लड़कियों का आना अभी लोगों की कल्पना में भी नहीं है लेकिन लड़कियों के लिए यह रोजगार का बहुत अच्छा साधन है. अगर लड़की पेशेवर शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाती है तो भी वह किसी गैरेज में काम सीखकर या तकनीकी डिग्री या डिप्लोमा प्राप्त करके मेकेनिक या इससे संबंधित नौकरी प्राप्त कर सकती है. इस क्षेत्र में वेतन भी अन्य अनस्किल्ड क्षेत्रों की तुलना में बुरा नहीं है. हालांकि, अनुभव से मिलने वाला वेतन तकनीकी शिक्षा के बाद प्राप्त होने वाली आय से कम जरूर है.

इसमें गैरेज की बात करें तो अधिकतर मेकेनिक बहुत कम उम्र से काम करना शुरू कर देते हैं. शुरूआत में उन्हें वेतन भी नहीं मिलता केवल खर्चे के 20-30 रुपये दे दिये जाते हैं. इसके बाद कुछ सालों में काम सीख लेने पर 3 से 5 हजार तक वेतन मिलता है. फिर अनुभव के आधार पर तनख्वा बढ़ती है. दूसरी ओर अगर आप तकनीकी शिक्षा प्राप्त करके आते हैं तो मेकेनिक से लेकर सुपरवाइजर तक का पद मिल सकता है. यह काबिलियत पर निर्भर करता है. यहां पर प्रारंभिक वेतन 5 से 9 हजार रुपये के बीच हो सकता है. यह बढ़कर 15 से 17 हजार रुपए तक भी जा सकता है. हालांकि, वेतन अलग-अलग कंपनी के नियमों पर निर्भर करता है.

लड़कियों और उनके माता-पिता को रोजगार के इस क्षेत्र की ओर भी ध्यान देना चाहिए. अपनी लड़कियों को मेकेनिक बनाने से घबराएं नहीं. वह भी किसी गैरेज में काम सीख सकती है या किसी संस्थान से तकनीकी प्रशिक्षण ले सकती है. मेकेनिक के काम को करने में लड़कियां भी उतनी ही सक्षम हैं, जितने की लड़के.

महिला मेकेनिक शांति देवी

लड़कियों और महिलाओं के मेकेनिक का काम करने पर प्रश्न चिन्ह लगाने वालों का जवाब बनी हैं, महिला मेकेनिक शांति देवी. 55 साल की शांति दिल्ली के एडब्ल्यू 7, संजय गांधी ट्रांसपोर्ट नगर में अपने पति के साथ 20 सालों से मेकेनिक की दुकान चला रही हैं. इस इलाके में हाइवे नजदीक होने के कारण ट्रकों को ठीक करने का बहुत काम आता है. शांति देवी ट्रकों के पहिये बदलने, पंचर ठीक करने और अन्य मेकेनिक के काम करती हैं. इस इलाके या शायद पूरी दिल्ली में वह अकेली महिला मेकेनिक हैं.

माना जाता है कि मेकेनिक का काम भारी होने के कारण लड़कियां नहीं कर पाएंगी लेकिन खुद शांति देवी ट्रक के पहियों को खोलती, ढकेलती और लगाती हैं. वह इस पेशे की बारीकियों से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं. उन्हें इस काम में लगने वाली मेहनत, टायरों की गंदगी और अन्य पुरुष मेकेनिक व ग्राहकों से कोई दिक्कत नहीं. उनके साथ काम करने वाले दूसरे लोग उनकी बहुत इज्जत भी करते हैं. वह कहती हैं कि यहां सबसे अच्छी बोलचाल है, कोई खतरा नहीं लगता और फिर काम करना है तो कैसे भी करेंगे. हालांकि, जब उन्होंने काम करना शुरू किया था तो कुछ लोग कहते भी थे की अच्छी लाइन नहीं है, सब मर्द होते हैं तो औरत को नहीं करना चाहिए. लेकिन, वह इन बातों की उपेक्षा कर अपना काम करती रहीं.

शांति देवी के दिल्ली में सफर की शुरूआत 25 साल पहले हुई थी. वह और उनके पति मध्य प्रदेश से दिल्ली काम करने आए थे. पहले शांति देवी सिलाई का काम करती थीं और उनके पति रिक्शा चलाते थे. लेकिन उससे घर खर्च निकलना मुश्किल हो गया. फिर उन्होंने संजय गांधी ट्रांसपोर्ट नगर में चाय की दुकान खोली. शांति देवी यहां रात के समय भी चाय बेचती थीं और घर भी देखती थीं. फिर उन्हें लगा की यहां मेकेनिक की दुकान खोलनी चाहिए. उन्होंने कारीगर काम के लिए रखा. उसने दोनों पति-पत्नी को मेकेनिक का काम सिखाया. इसके बाद लड़के के जाने पर दोनों ने बहुत मेहनत और लगन से दुकान का काम संभाल लिया. आज दुकान से वह सात हजार रुपये महीना तक कमा लेते हैं.

शांति देवी के सात बच्चे भी हैं जो अपनी-अपनी जिंदगी में सेटल हैं लेकिन वह यह काम नहीं छोड़ना चाहतीं. वह कहती हैं कि अब खाली बैठना अच्छा नहीं लगता इसलिए यह काम करती रहूंगी.

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