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परंपरागत से अपरंपरागत तक महिलाओं का जीवट बरकरार

-आकांक्षा कुमारी

woman empowermentपुरुषवादी समाज की मान्यताओं और धारणाओं ने महिलाओं को राजगार के कई क्षेत्रों से वंचित कर रखा है. इनके लिए अवसर के कई दरबाजों को बंद कर रखा है. हालांकि, आवश्यकता और जीवटता ने कुछ महिलाओं को ऐसे कामों में हाथ आजमाने का मौका दिया है, जिसे पुरुषों के लिए सुरक्षित माना जाता रहा है. इन कुछ महिलाओं ने हजारों-लाखों दूसरी महिलाओं के लिए इन क्षेत्रों में काम करने का मार्ग प्रशस्त किया है, लेकिन अभी बहुत सारे ऐसे क्षेत्र हैं, जहां काम करने के लिए रास्ते बनाने पड़ेंगे. सामाजिक मान्यताओं और परंपरागत सोच के विपरीत जाकर कुछ महिलाओं ने राजमिस्त्री जैसे पुरुष वर्चस्व वाले क्षेत्र में कदम रखा है, तो कार्पेंटिंग, प्लंबिंग, बुक बाईंडिंग, इलेक्ट्रीक वर्क्स आदि कई क्षेत्र में अभी मार्गदर्शकों का अभाव है.  

बिहार के दरभंगा जिले की 33 वर्षीय सुनीता अपनी हमउम्र महिलाओं की ही तरह हैं, लेकिन उनके कामकाज ने उन्हें न सिर्फ इनसे अलग पहचान दी है, बल्कि वह नारी शक्ति का रूप बन कर उभरी हैं. दरभंगा के ग्रामीण इलाके में रहने वाली सुनीता ने पुरुषों के वर्चस्व वाले क्षेत्र यानी निर्माण क्षेत्र में अपनी नई पहचान बनाई है. आम तौर पर निर्माण स्थल पर महिलाएं मजदूर के रूप में काम करती दिखती हैं, लेकिन सुनीता ने परंपराओं को तोड़ कर राजमिस्त्री का काम शुरू किया.
बिहार के सीतामढ़ी जिले के पकटोला गांव में देवनारायण मुखिया के घर जन्मी सुनीता की शादी 13  वर्ष की उम्र में हो गई थी. शादी के बाद  सुनीता के घर दो बच्चों का जन्म हुआ, लेकिन शादी के 12 साल बाद उसे पति से अलगाव झेलना पड़ा. सुनीता का पति शिवजी दिल्ली रोजगार की तलाश में गया, वहां जाने के दो-चार महीने तक तो दोनों की बातचीत होती रही, लेकिन उसके बाद शिवजी ने उससे संबंध विच्छेद कर लिया. अपने ही पति द्वारा मुंह मोड़ लेने के बाद सुनीता के सामने भरण-पोषण की समस्या खड़ी हो गई, लेकिन इस विपरीत परिस्थिति में ही सुनीता का असली व्यक्तित्व निखर कर सामने आया. वर्ष 2004 में अपने दो छोटे बच्चों और खुद का पेट भरने के लिए वह काम की तलाश में दरभंगा शहर पहुंची और मजदूरी करना शुरू कर दिया, लेकिन इस दौरान उसे महसूस हुआ कि मजदूर की अपेक्षा राज मिस्त्री के काम से उसके परिवार का गुजारा हो सकता है.

हालांकि, शुरुआत में उसे परेशानियों का सामना करना पड़ा, लेकिन परिवार चलाने की जिम्मेदारी के कारण उसने बाधाओं को अपने इरादे के बीच नहीं आने दिया. आज सुनीता राज मिस्त्री के करियर में स्थापित हो चुकी हैं और दरभंगा के छपकी, मिर्जापुर, रहमगंज, लक्ष्मीसागर जैसे क्षेत्रों में चल रहे निर्माण कार्य में मजदूर नहीं बल्कि राज मिस्त्री के रूप में सहयोग दे रही है. सुनीता के दोनों बच्चे स्कूल जाते हैं  और खुद उसने एक लावारिश बच्चे को भी गोद लिया है.

बिहार की सुनीता की तरह ही राजस्थान के भीमदा गांव की कांता देवी, अनिता, चांगी और सोनी राज मिस्त्री का काम कर रही हैं. यहां यह देखना भी महत्वपूर्ण है कि ये महिलाएं थार मरुस्थली क्षेत्र के उस भीमदा गांव से ताल्लुक रखती हैं, जो कि महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार और कन्या भ्रूणहत्या जैसी नकारात्मक खबरों के कारण चर्चा में रहा है. इन महिलाओं को मजदूरी से राजमिस्त्री बनाने का श्रेय बहुराष्ट्रीय केयर्न इंडिया को जाता है, जिसने अनोखी पहल करते हुए आईएलएंडएफएस स्किल्स स्कूल की साझेदारी में भीमदा में राजमिस्त्री के काम के दो महीने का प्रशिक्षण कार्य शुरू किया.

कांता जैसी महिलाएं शुरुआत में पुरुषों के साथ प्रशिक्षण लेने को लेकर असमंजस में थीं, लेकिन उन्हें अब अपने फैसले पर खुशी हो रही है.
है. इस कार्यक्रम के तहत उन्हें मल्टीमीडिया और ऑडियो-वीजुअल के जरिए प्रशिक्षित किया जा रहा है. राजमिस्त्री बनने के बाद अब ये महिलाएं हर दिन करीब 500 रुपये कमा लेती  हैं.

ग्लास वर्क, कार्पेंटर, प्लम्बिंग, बुक बाइंडिंग, इलेक्ट्रीशियन महिलाओं के लिए राज मिस्त्री की तरह ही अपरांपरिक क्षेत्र हैं, जहां वह अपनी रचनात्मकता और कौशल का इस्तेमाल कर सकती हैं. हालांकि, यह विडंबना है कि महिलाओं की उपस्थिति पुरुषों के मुकाबले उतनी नजर नहीं आती, जितनी वास्तव में होनी चाहिए. ऐसे काम में महिलाएं प्रबंधन के स्तर पर तो दिखती हैं, लेकिन कामगार के रूप में वह नजर नहीं आती, जिसके पीछे एक खास किस्म की मानसिकता काम करती है.

 

पहली महिला-पुरुषों के काम के तरीके का विभाजन और दूसरा महिलाओं की दक्षता और क्षमता पर सवाल. यह मानसिकता पूर्वी दिल्ली में ग्लास वर्क से जुड़ी शॉप के मालिक अजीत की बातों से साबित हो जाती है. अजीत से जब पूछा कि आपकी दुकान में महिलाएं क्यों नहीं हैं, तो उन्होंने टका सा जवाब देते कहा कि यह महिलाओं के बस की बात नहीं. अजीत ने कहा, “यह काम महिलाएं नहीं कर सकतीं. उनके लिए बड़े बड़े शीशे को उठाना और काटना आसान नहीं, फिर उन्हें इस काम में रखने की कल्पना नहीं की जा सकती. वह सिर्फ इंटीरियर डिजायनिंग का ही काम कर सकती हैं.“

महिलाओं की क्षमता पर उठे सवाल से हट कर देखा जाए तो यहां भी रोजगार की संभावना अच्छी है. ग्लास वर्क की शॉप में मुख्य काम दूसरे घरों, दफ्तरों में शीशे लगाने का होता है और ऐसे काम के लिए दुकानदार अपने कामगार को ग्राहक की तरफ से मिली पूरी मजदूरी दे देता है, और ऐसे में महिलाएं भी एक दिन में 500-1000 रुपये के बीच कमाई कर सकती हैं.

राजेश अग्रवाल की पश्चिमी दिल्ली में इलेक्ट्रिक की शॉप है. इलेक्ट्रिक सामान बेचने के अलावा वह विभिन्न घरों में बिजली से जुड़े काम के लिए अपने कामगारों को भेजते हैं. उनके दुकान में कोई महिला काम नहीं करती, लेकिन वह काफी आशावान नजर आते हैं और मानते हैं कि अन्य क्षेत्र की तरह ही इस क्षेत्र में महिलाएं अपने कौशल का परिचय दे सकती हैं. राजेश ने अपनी दुकान पर महिला को क्यों नहीं रखा, इस पर वह कहते हैं, “उनके जैसी दुकानों में अधिकांश काम घर-घर जा कर करना होता है, ग्राहक अपनी समस्या लेकर आता और कामगारों को उनके घर भेजा जाता है, महिलाओं के साथ सुरक्षा की समस्या होती है और इसलिए वे उन्हें नहीं रखते, क्योंकि दुकानदार सुरक्षा जैसा रिस्क आमतौर पर नहीं लेना चाहते.“ राजेश हालांकि, आशावादी दृष्टिकोण रखते हुए कहते हैं कि महिलाओं को किसी दुकान पर या कंपनी में ऐसे काम मिलें तो वहां उन्हें सुरक्षा की दिक्कत नहीं होगी.

कमाई के लिहाज से देखें तो इलेक्ट्रिशियन का काम घरों-दफ्तरों में बिजली के तार ठीक करना होता है और काम के आकार पर मजदूरी तय होती है. यहां एक दिन में 250 से 400 रुपये तक की कमाई प्रतिदिन हो जाती है. महिला सुरक्षा की बात उठी तो लक्ष्मी नगर में बुक बाइंडिंग का काम करने वाले सूरज ने कहा कि यह ऐसा क्षेत्र हैं, जिसे स्वरोजगार के रूप में महिलाओं को अपनाना चाहिए. इसमें लागत भी कम आती है और उन्हें कही जाने की भी आवश्यकता नहीं और महिलाएं छोटी सी दुकान चला कर यह काम कर सकती हैं. इस काम के लिए किसी खास प्रशिक्षण की भी आवश्यकता नहीं है और कमाई भी ठीक-ठाक हो जाती है.

कार्पेंटर का काम भी पुरुषवादी मानसिकता से अछूता नहीं है. दिल्ली के अधिकांश फर्नीचर के वर्कशॉप पर पुरुषों को ही काम करते देखा. हालांकि, दुकानदार इस बात से इंकार नहीं करते कि महिलाएं इसमें अच्छा काम नहीं कर सकतीं. वह यह मानते हैं कि इसमें काम करना उद्योग के लिए फायदेमंद हो सकता है, वह कहते हैं कि कामगार के रूप में अपनी रचनात्मकता का इस्तेमाल कर सकती हैं. कार्पेंटर के रूप में काम करने वाले लोगों को ऐसे दुकानों में प्रतिदिन की दिहाड़ी 300 से 400 रुपये दी जाती है.

राजमिस्त्री से लेकर कार्पेंटर तक महिलाओं के लिए अपरांपरिक से लगने वाले इन क्षेत्रों में रोजगार की संभावनाएं काफी हैं. लेकिन इसके प्रचलित न होने और इनको लेकर समाज में फैले भ्रम चाहे बात सुरक्षा की हो या महिलाओं की क्षमता से जुड़े सवाल, इसने महिलाओं को इन पेशों से अभी भी लगभग दूर रखा है. महिलाओं को अभी भी सॉफ्ट माना जाता है और अपेक्षा की जाती है कि वह कोई हल्का या कम जोखिम वाला काम करें, जैसी सोच अजीत जैसे लोगों की बातों से जाहिर होती है.

लेकिन यह सीधे तौर पर दोहरे मानदंड को दर्शाती है. एकतरफ निर्माण स्थल पर महिलाएं पुरुषों के बराबरी ईंटें ढोती हैं, लेकिन बात चाहे कार्पेंटर की हो, ग्लास वर्क हो या इलेक्ट्रिशियन का महिलाओं को नाजुक बता कर उन्हें इस क्षेत्र से अलग रखने के तर्क पेश कर दिए जाते हैं. इस गलत चलन और सोच को बदलना समय की मांग है. जिस तरह बिहार और राजस्थान की औरतें तमाम बेड़ियों के बावजूद राज मिस्त्री के काम में अपनी दखल दे रही हैं, वैसे ही अन्य क्षेत्रों में महिलाओं के कार्य कुशलता की आवश्यकता है.

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