समाज में महिलाओं को समानता दिलाने के उद्देश्य से भारत सरकार ने विभिन्न कानूनों का प्रावधान किया है। स्त्री को दहेज, घरेलू हिंसा, श्रम में भेदभाव के खिलाफ, सम्पत्ति में हिस्सा, विवाह और तलाक आदि संबंधी कई अधिकार दिए गए हैं। लेकिन इसके बावजूद भी बड़ी संख्या में महिलाएं समाज में भेदभाव की शिकार होती हैं। उनके पक्ष में कानून होते हुए भी वे उसका लाभ नहीं उठा पातीं। इस समस्या का एक बड़ा कारण है महिलाओं में अपने अधिकारों को लेकर जागरुकता का अभाव। कई कारणों के चलते उन्हें मालूम ही नहीं हो पाता की संविधान ने उन्हें क्या-क्या अधिकार दिए हैं।
एेसे में हम यहां ‘महिलाओं के सम्पत्ति अधिकार और भरण पोषण‘ कानून के विषय में बता रहे हैं। यह अधिकार स्त्री को आर्थिक रूप से मजबूती प्रदान करता है। इस संबंध में ‘विवाहित महिला संपत्ति कानून, 1874‘ और ‘हिंदू उत्तराधिकार कानून, 1956‘ मौजूद है।
भारत मेें महिलाओं के सम्पति अधिकार और भरण-पोषण
मुस्लिम कानून के अनुसार
पु़त्री
– उत्तराधिकार में पुत्री का अंश पु़त्र के अंश का आधा होता है। ऐसा इस अवधारणा को ध्यान में रखते हुए होता है कि एक महिला, पुरुष के आधे के बराबर होती है।
– तथापि, उसका अपनी संपत्ति पर सदैव पूर्ण नियंत्रण होता है। कानूनी रूप से वह अपने जीवनकाल या अपनी मृत्यु पर अपनी इच्छानुसार उसका प्रबंधन, नियंत्रण या निपटान कर सकती है।
– यद्यपि उसे जिस व्यक्ति से उत्तराधिकार प्राप्त होना है, उससे उपहार प्राप्त हुए होंगे। पर इस पर कोई संदेह नहीं है कि उपहार उत्तराधिकार कानूनों में पुरूष के अंश का एक तिहाई रोकने का एक साधन है क्योंकि मुस्लिम कानून के अंतर्गत उत्तराधिकार के अंश का बहुत कड़ाई से पालन होता है।
– पुत्रियों का जब तक विवाह नहीं हो जाता, तब तक उनको माता-पिता के घर में निवास और भरण-पोषण का अधिकार है। तलाक के मामले में भरण-पोषण हेतु प्रभार इददत अवधि (लगभग तीन माह) के पश्चात उसके पितृ परिवार पर आ जाता है। यदि उसके पास उसका भरण-पोषण कर सकने वाले बच्चे हैं तो यह भार उन पर आ जाता है।
पत्नी
– इस्लामिक कानून में किसी महिला की पहचान यद्यपि पुरूष के स्तर से निम्न है, फिर भी विवाह होने पर यह पूर्णतः समाप्त नहीं होती है।
– इस प्रकार पत्नी का अपनी वस्तुओं तथा सम्पत्ति पर नियंत्रण बना रहता है। उसके पास अन्य पत्नियों, यदि कोई हो, को दिए जाने वाले भरण-पोषण के समान ही राशि प्राप्त करने का अधिकार है। यदि पति उसके साथ भेदभाव करता है तो पत्नी अपने पति के विरूद्ध कार्रवाई कर सकती है।
– उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि तलाक के मामले में एक मुस्लिम पति को तलाकशुदा पत्नी के भविष्य के लिए तर्कसंगत तथा उचित प्रावधान करना चाहिए जिसमें स्पष्ट रूप से उसका भरण-पोषण भी शामिल होता है। इददत अवधि के पश्चात विस्तारित ऐसा तर्कसंगत तथा उचित प्रावधान पति द्वारा मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों की रक्षा) अधिनियम, 1986 की धारा 3 (1 एचए) के अंतर्गत इददत अवधि के भीतर किया जाना चाहिए। साथ ही भरण-पोषण अदा करने की मुस्लिम पति की देयता इददत अवधिक तक सीमित नहीं है।
– विवाह के समय सहमत अनुबंध की शर्तों के अनुसार ‘मेहर’ का अधिकार।
– पत्नी को पति के संपत्ति में से यदि बच्चे हों तो 1/8वां भाग और यदि बच्चे न हों तो एक/चैथाई भाग उत्तराधिकार में मिलेगा। यदि एक से अधिक पत्नी हैं तो यह अंश कम होकर 1/16वां भाग हो जाएगा। ऐसी परिस्थितियों में जहां कानून द्वारा विहित किए अनुसार संपदा में कोई अंशधारी नहीं है, वहां पत्नी को वसीयत द्वारा उत्तराधिकार में अधिक राशि प्राप्त हो सकती है। कोई मुस्लिम व्यक्ति वसीयत द्वारा अपनी एक/तिहाई संपत्ति का निपटान कर सकता है, यद्यपि ऐसा उत्तराधिकार में अंशधारक को नहीं किया जा सकता है।
माता
– तलाकशुदा अथवा विधवा के मामले में वह अपने बच्चों से भरण-पोषण प्राप्त करने की पात्र हैं।
– उसकी संपत्ति को मुस्लिम कानून के नियमों के अनुसार विभाजित किया जाएगा।
– उसे अपने मृतक बच्चे की संपदा का 1/6वां भाग उत्तराधिकार में प्राप्त करने का अधिकार है।
ईसाई कानून
पुत्री
– उत्तराधिकार में पुत्री को अपने पिता अथवा माता की संपदा में से अपने अन्य भाइयों तथा बहनों के समान अंश मिलता है।
– पुत्री विवाह से पूर्व अपने माता-पिता से आश्रय, भरण-पोषण की पात्र होती है परंतु विवाह के पश्चात नहीं।
– वयस्क होने पर उसे अपनी व्यक्तिगत संपत्ति पर पूर्ण अधिकार होता है। वयस्क न होने तक उसका प्राकृतिक संरक्षक पिता होगा।
पत्नी
– वह अपने पति से भरण-पोषण प्राप्त करने की अधिकारी है परंतु उसे मुहैया करवाने में विफलता स्वयं में तलाक हेतु आधार नहीं होगी।
– अपने पति की मृत्यु पर वह संपत्ति के एक/तिहाई भाग की पात्र होगी और शेष को बच्चों के बीच समान रूप से विभाजित किया जाएगा।
– यह मानते हुए कि उसके पति की संपदा 10,000 रुपये से अधिक की थी तो उसे न्यूनतम 5,000 रुपये उत्तराधिकार में मिलने चाहिए। ऐसा न होने के मामले में उसे सारी संपदा मिल जाएगी।
माता
वह अपने बच्चों से भरण-पोषण प्राप्त करने की पात्र नहीं है। यदि उसके किसी बच्चे की मृत्यु बिना जीवनसाथी या बिना किसी जीवित बच्चे के हो जाती है तो वह उसकी परिसंपत्तियों में से एक-चैथाई उत्तराधिकार प्राप्त कर सकेगी।
हिंदू कानून
पुत्री
– पिता की संपत्ति में पुत्रियों के उत्तराधिकार का अंश पुत्रों के समान होता है।
– पुत्री की उसकी मां की संपत्ति में भी हिस्सेदारी होती है।
– हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 (2005 का 39) 9 सितंबर, 2005 से प्रभावी हुआ है। यह संशोधन अधिनियम हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में लैंगिक विभेदकारी प्रावधानों को समाप्त करता है और पुत्रियों को निम्नलिखित अधिकार देता है –
– किसी सह-समांशी की पुत्री का जन्म से ही पुत्र के समान सह-समांशी अधिकार होगा।
– सह-समांशी संपत्ति में पुत्री के वही अधिकार होंगे जो उसके पुत्र होने पर होते।
– पुत्री की उक्त सह-समांशी संपत्ति में किसी पुत्र के समान ही देयता होगी।
– पुत्री को भी उतना ही अंश दिया जाता है जितना किसी पुत्र को।
– विवाहित पुत्री का अपने माता-पिता के घर में न तो आश्रय का और न ही भरण-पोषण का कोई अधिकार होता है, उक्त को उसके पति से वूसला जाता है। तथापि, परित्यक्त किए जाने, तलाकशुदा अथवा विधवा होने पर एक विवाहित पुत्री का भी अपने माता-पिता के घर में निवास का अधिकार होता है।
– किसी महिला का उसके द्वारा अर्जित की गई अथवा उसे उपहार में या वसीयत में दी गई संपत्ति पर पूरा अधिकार होता है बशर्ते वह वयस्क हो। वह उसे बिक्री, उपहार अथवा वसीयत, जैसा वह उचित समझे, के द्वारा निपटान के लिए स्वतंत्र है।
पत्नी
– एक विवाहित महिला का अपनी व्यक्तिगत संपत्ति पर पूर्ण अधिकार होता है। जब तक वह आंशिक रूप से अथवा पूर्ण रूप से इसे किसी को उपहार में न दे दे तब तक वह अपनी परिसंपत्तियों, चाहे अर्जित हों, उत्तराधिकार में प्राप्त हों अथवा उपहार दी गई हों, की एकमात्र स्वामी एवं प्रबंधक होगी।
– वह अपने पति से भरण-पोषण, सहायता तथा आश्रय की पात्र है और यदि उसका पति किसी संयुक्त परिवार से संबद्ध हो तो उस परिवार से इन सभी को प्राप्त करने की पात्र है।
– अपने पति तथा पुत्रों के मध्य संयुक्त परिवार की संपदा के विभाजन पर वह किसी अन्य व्यक्ति के समान ही अंश प्राप्त करने की पात्र है। इसी प्रकार अपने पति की मृत्यु पर वह अपने बच्चों तथा पति की मां के साथ पति के भाग में से एक समान अंश की पात्र है।
माता
– वह अपने उन बच्चों से भरण-पोषण प्राप्त करने की पात्र है जो आश्रित नहीं हैं। वह एक श्रेणी-1 की उत्तराधिकारी भी हैं।
– यदि पुत्रों के मध्य संयुक्त परिवार की संपदा का विभाजन किया जाता है तो किसी विधवा मां को अपने पुत्र के अंश में समान अंश प्राप्त करने का अधिकार है।
– उसके स्वामित्व वाली सारी संपत्ति का बिक्री, वसीयत अथवा उपहार, जिसका भी वह चुनाव करती है, के माध्यम से निपटारा किया जाएगा।
– उसकी मृत्यु बिना वसीयत के होने के मामले में उसके बच्चे लिंग पर निर्भर न करते हुए (पुत्री और पुत्र दोनों) समान रूप से उत्तराधिकार प्राप्त करेंगे।
भरण-पोषण
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 पत्नी, बच्चों तथा माता-पिता के लिए भरण-पोषण का प्रावधान करती है।
यदि पर्याप्त साधन होने वाला कोई व्यक्ति निम्नलिखित में से किसी की अनदेखी करता है अथवा उनके भरण-पोषण से इंकार करता है-
– उसकी पत्नी, जोकी स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, अथवा
– उसका कानूनी अथवा गैर-कानूनी अवयस्क बच्चा,
– उसके पिता अथवा माता, जोकि स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं
ऐसे मामलों में अदालत संबंधित व्यक्ति को अपनी पत्नी, बच्चे अथवा माता-पिता के भरण-पोषण हेतु एक मासिक भत्ता देने का आदेश दे सकती है।
– आदेश प्रथम श्रेणी के किसी मजिस्ट्रेट द्वारा दिए जाते हैं।
– कार्यवाही के लंबित होने के दौरान मजिस्ट्रेट अंतरिम भरण-पोषण हेतु मासिक भत्ते के आदेश दे सकता है।
– जहां तक संभव हो अंतरिम भरण-पोषण के मासिक भत्ते तथा कार्यवाही के खर्चे हेतु आवेदन को, आवेदन दिए जाने की तिथि से 60 दिवस के भीतर निपटा दिया जाना चाहिए।
– ‘पत्नी’ में ऐसी महिला भी शामिल है जिसे तलाक दिया जा चुका हो अथवा जिसने अपने पति से तलाक ले लिया हो तथा पुनर्विवाह न किया हो।
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय
मंगतमुल बनाम पुन्नी देवी (1995) (5) स्केल 199 एससी
भरण-पोषण में निवास हेतु प्रावधान आवश्यक रूप से शामिल होना चाहिए। भरण-पोषण इसलिए दिया जाता है ताकि महिला उस तरीके से अपना जीवन जी सके जिसकी वह आदि हो चुकी है। इसलिए भरण-पोषण की अवधारणा में भोजन तथा वस्त्रों का प्रावधान होना चाहिए और उसी प्रकार सिर के ऊपर छत की आधारभूत आवश्यकता को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
श्री राजेश चैधरी बनाम निर्मल चैधरी सीएम (एम) 1385/2004 दिल्ली उच्च न्यायालय
इस मामले में व्यक्ति ने बालिका के पितृत्व का पता लगाने की अनुमति मांगी थी। वह डीएनए परीक्षण द्वारा उस बच्चे के पितृत्व का पता लगाना चाहता था जिसका पिता तथाकथित रूप से वह नहीं था। यह मुद्दा की एक अलग हो रही पत्नी जो स्वयं तथा अपने बच्चे के लिए भरण-पोषण का दावा कर रही है, उसे बच्चे के अवैध होने के आरोप पर डीएनए परीक्षण के जटिल मुद्दे पर अंतरिम भरण-पोषण से मना किया जा सकता है अथवा नहीं, में निर्णय लिया जाना था।
अदालत ने यह निर्णय दिया कि विवादित पितृत्व के प्रश्न के निर्धारण हेतु रक्त-समूह परीक्षण एक उपयोगी परीक्षण है। अदालतें पारिस्थितिकीय साक्ष्य के रूप में इस पर निर्भर कर सकती हैं, जोकि अंततः किसी एक व्यक्ति को बच्चे का पिता होने से नकारता है। तथापि, किसी भी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध विश्लेषण हेतु रक्त का नमूना देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है और उसके मना करने का कोई प्रतिकूल अर्थ नहीं निकाला जा सकता है। भारत में अदालतें वस्तुतः रक्त परीक्षण का उपयोग नहीं कर सकती हैं। जहां कहीं जांच करने के लिए प्रार्थना हेतु ऐसा आवेदन किया जाता है वहां पर रक्त जांच की प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
कानून मानता है कि कोई विवाह समारोह वैध है तथा प्रत्येक व्यक्ति भी वैध है। विवाह अथवा पुत्रत्व (पितृत्व) को माना जा सकता है, कानून आमतौर पर अवगुण तथा अनैतिकता के विरुद्ध मानकर चलता है। अदालतों को ध्यानपूर्वक इसका भी परीक्षण करना चाहिए कि रक्त जांच के आदेश दिए जाने के क्या परिणाम होंगे, क्या यह बच्चे को एक अवैध संतान अथवा मां को एक कलंकित महिला ठहराए जाने में परिणत होगा। जहां तक याचिकाकर्ता की पत्नी का संबंध है, एक अवयस्क बच्चे तथा उसकी मां का भरण-पोषण तथाकथित अवैध होने के निर्धारण तक प्रतीक्षा नहीं कर सकता है और यदि पुरुष को भुगतान करने योग्य पाया जाए तो इसके लिए आदेश शीघ्रता से दिए जाने चाहिए।
श्रीमति बी.पी. अचला आनंद – 2000 की सिविल अपील संख्या 4250
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने व्यक्तिगत कानूनों के अंतर्गत वैवाहिक घर में रहने के पत्नी के अधिकार को दिया था। पत्नी का उसके पति द्वारा भरण-पोषण किए जाने का अधिकार है। वह उसकी छत तथा सुरक्षा के अंतर्गत रहने की पात्र है। वह एक पृथक निवास की पात्र है यदि पति के आचरण से इसकी आवश्यकता हो अथवा पति द्वारा अपने आवास के स्थान पर उसका भरण-पोषण करने से इंकार किया जाए अथवा अन्य किसी उचित कारण से उससे अलग रहने के लिए बाध्य हो। आवास का अधिकार पत्नी के भरण-पोषण के अधिकार का एक भाग तथा अंश है। भरण-पोषण के प्रयोजन हेतु ‘पत्नी‘ शब्द में एक तलाकशुदा पत्नी भी शामिल है।
भारत हैवी प्लेट्स एंड वैसल्स लिमिटेड, एआईआर 1985, आंध्र प्रदेश 207
पति एक कंपनी का कर्मचारी था। वह कंपनी के एक क्वार्टर में अपनी पत्नी के साथ रहता था जिसे उसे आवंटित किया गया था। यह क्वार्टर उसका वैवाहिक घर था। तथापि, पति तथा पत्नी के मध्य मतभेद उत्पन्न हुए जो उनके अलगाव में परिणत हुआ और अंततः पत्नी ने अदालत में मुकदमा करते हुए अपने पति पर उसकी तथा उसके तीन अवयस्क बच्चों की भरण-पोषण की अनदेखी करने का आरोप लगाया। पति ने कंपनी का क्वार्टर छोड़ दिया था और उस पर केवल उसकी पत्नी तथा अवयस्क बच्चे ही काबिज थे। पति ने कंपनी को उस क्वार्टर का पट्टा समाप्त करने के लिए लिखा जो कि उसके पक्ष में था।
पत्नी ने बचाव हेतु अदालत में अपील की और उसे तथा उसके तीन बच्चों को कंपनी द्वारा बाहर निकाले जाने से रोकने के लिए निषेधाज्ञा की प्रार्थना की। उच्च न्यायालय ने उसके समक्ष रखे गए प्रतिवाद को बनाए रखने का निर्णय दिया था जिसके द्वारा कंपनी को पत्नी तथा उसके अवयस्क बच्चों को निकाले जाने से रोक दिया गया था। अदालत ने इन तथ्यों पर विचार किया कि क्वार्टर का उपयोग कर्मचारी द्वारा किया जाना होता है और पति अपनी पत्नी तथा बच्चों को आश्रय मुहैया करवाने के लिए बाध्य है। पति तथा कंपनी दोनों ने क्वार्टर को वैवाहिक घर माना था जहां पत्नी भी रह रही थी। किराए की राशि को पति के वेतन में से कटौती किए जाने के निर्देश दिए गए थे।
Bhai ki kharidi jammen main sister ka adhikar hai Kya
Sasur ki property me sasur ke or pati ke marne ke baad putr wsdhu ka sampati me kitna hissa hoga