अधिकांश टीवी सिरियल्स महिलाओं की छवि को दो स्तर पर नुकसान पहुंचा रहे हैं. एक तो त्याग, बलिदान के नाम पर उनके विकास को अवरूद्ध करने की कोशिश की जाती है, तो दूसरी उन्हें षडयंत्रकारी और स्वार्थी बताकर पूरी महिला जाति की छवि को धूमिल किया जाता है. इन नाटकों के माध्यम से महिलाओं को केवल बरसों से चले आ रहे गुलामी के बंधनों में जकड़े रहने का संदेश दिया जा रहा है:
टेलिविजन पर आने वाले फैमिली ड्रामा से भरपूर नाटक (सीरियल्स) आजकल एक अलग एंगल के साथ शुरू तो होते हैं लेकिन फिर वही सास-बहु, देवरानी-जिठानी, दो पति एक पत्नी, एक प्रेमिका दो प्रेमी और दो सहेलियों के रूप में महिलाओं की गुत्थम-गुत्थी पर ही आ पहुंचते हैं. फिर एक नायिका और विलेन महिला के आपसी द्वंद में कूटनीती, जलन, पाखंड, साजिशों और पलटवार के सहारे नाटक सालों साल चलता रहता है.
इन मसालों से चलाए जाने वाले नाटकों की कहानियां महिला पात्रों के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं. इसके लिए महिला पात्रों का ऐसा चित्रण किया जाता है जो उनकी छवि पर नकारात्मक असर डालता है. अधिकांश नाटक इसी ढर्रे पर चलते हैं. सभी चैनल्स पर हर वक्त एक ही तरह की बात दिखाए जाने से दर्शक कहीं न कहीं उसे असल जिंदगी से जोड़कर देखने लगते हैं और महिलाओं से वही अपेक्षा करते हैं.
ये नाटक महिलाओं की छवि को दो तरह से प्रभावित करते हैं. महिला पात्रों को अच्छाई और बुराई के बीच दो भागों में बांट जाता है. नायिका यानी की अच्छी महिला ‘सर्वगुण संपन्न‘ होती है. वह बेहद खूबसूरत और अत्यधिक सहनशील होती है. गलतियां नहीं करती. केवल परिवार के बारे में सोचती है. उसका अपना अस्तित्व और इच्छाएं उसके लिए कोई मायने नहीं रखते. अगर वह अच्छी नौकरी करती हैं, तो ससुराल आकर नौकरी छोड़ घरेलू बन जाती हैं. मॉडर्न हो तो पारंपरिक परिधानों में आ जाती है. इन्हें त्याग की प्रतिमूर्ति के रूप में दिखाया जाता है, जैसाकि सदियों से महिलाओं को बताया जाता रहा है. इसका असर सामान्य जीवन पर पड़ता है, जो महिला ससशक्तीकरण के मार्ग में रोड़ा बनता जा रहा है. इसके विपरीत जो महिला बुरी दिखाई जाती है, उसमें सारे अवगुण समाए होते हैं. वह किसी से प्यार नहीं करतीं और बहुत कठोर होती हैं. वह नौकरी भी नहीं करतीं और अपना सारा समय साजिश रचने में बरबाद करती हैं. इन्हें देखकर लगता है कि केवल महिलाओं में ही जलन, कुटिलता, चालाकी और चुगलखोरी जैसी आदतें होती हैं. उनके पास कुछ काम नहीं होता और सारा वक्त यही उल-जलूल चीजों में गुजारती हैं. दोनों ही पात्रों में दिखाई गई ये विशेषताएं अच्छाई और बुराई के ऐसे मानदंड स्थापित करता है, जिससे महिलओं की छवि पर नाकारात्मक असर पड़ता है.
महिलाओं को यथास्थिति में रहने की सीख
टीवी पर आ रहे नाटक ऐसी सोच को बढ़ावा देते हैं, जो पारंपरिक रूप से तो सही मानी जाती है, लेकिन आधुनिक समाज के सोंच के बिल्कुल विपरीत है. यह माना जाता रहा है कि सेवा, त्याग और बलिदान केवल स्त्री के गुण हैं. उन्हें सुंदर और घर के कामों में निपुण होना चाहिए. इन नाटकों की महिलाएं इस सोच पर खरी उतरती हैं. उनको घरेलू काम काज में निपुन्न, जेवरों व महंगे कपड़ों में लदी, शर्मिली, पति पर निर्भर और हमेशा रोते व शिकायत करते दिखाया जाता है. हमारे समाज में भी सदियों से महिलाओं से ऐसे ही व्यवहार की उम्मीद की जाती है. इसके चलते उन्हें पढ़ाई और नौकरी से दूर रखा जाता है. ये नाटक उस धारणा को और मजबूती देते हैं.
इसका एक उदाहरण है, स्टार प्लस पर आने वाला नाटक ’संस्कार’. इसमें नायिका विदेश की नौकरी छोड़कर शादी के बाद अच्छी बहु होने की परीक्षाएं देती है और फिर सबकी पसंदीदा बहु बन जाती है. यह एक तरह से लड़कियों को यह संदेश देता है कि उनका अंतिम उद्देश्य घर की जिम्मेदारी संभालना है. उन्हें देश, समाज या कंपनी नही बल्कि केवल घर चलाना है. ऐसे सिरियल्स महिलाओं को उसी दकियानुसी समाज की ओर धकेलने की कोशिश करती है, जहां महिलाओं का काम केवल अपने परिवार की सेवा करना है, चाहे उसके अंदर कितनी भी संभावानएं क्यों न हो. जो लड़कियां आज आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं और आगे बढ़ रही हैं, उन्हें गलत करार देकर घर तक ही सीमित रहने की सीख दी जाती है.
इसके अलावा एक पुरुष की दो पत्नियां होना तो कई नाटकों की कहानी है. अगर पति का दूसरी औरत के साथ रिश्ता है, वह शराबी है या बिगड़ेल है, तो भी पत्नी उससे अलग नहीं होती. बल्कि पति को सुधारने की कोशिश करती है और पति उसे धिक्कारता रहता है. इसके विपरीत पत्नी को बिगड़ेल और पति को इतना समर्पित नहीं दिखाया जाता. ’धर्मपत्नी’ और ’जाने क्या बात हुई’ नाटक इसके प्रत्यक्ष उदाहरण है. इनसे सीधे-सीधे संदेश जाता है कि पति में लाख बुराई होने पर भी पत्नी उससे अलग नहीं हो सकती क्योंकि शादी हो जाने पर अब वह पुरुष ही उसका सर्वस्व है. उसे सुधारना उसकी जिम्मेदारी है, क्योंकि अगर सुधार नही सकी, तो उसके साथ सड़ी-गली जिंदगी जीना पड़ेगा, अलग होना तो असंभव ही है.
पुरुष दिखाए जाते हैं मासूम
टीवी पर दिखाए जाने वाले नाटकों में पुरुषों का भी एक ही तरह का चित्रण होता है. लेकिन, उन भूमिकाओं का सामान्य पुरुषों पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता. नाटकों में प्रमुख भूमिका और सहायक भूमिकाओं में दिखाए जाने वाले अधिकतर पुरुष आत्मनिर्भर, ताकतवर होते हैं, उनका बिजनस होता है और समाज में नाम होता है. उन्हें घर के मामलों में पड़ते हुए बहुत कम दिखाया जाता है. जब पत्नी को ससुराल वालों की जिल्लतभरी कसौटियों पर खरा उतरना होता है, तो वो विरोध करने के बजाए पत्नी की उन कामों में मदद करते हैं. नाटकों के मर्द चुगलियां कम करते हैं, साजिशें कम रचते हैं और घर नहीं संभालते. ऐसे में असल जिंदगी के पुरुषों से कुछ अलग अपेक्षाएं नहीं की जातीं और न उनकी छवि बिगड़ती है.
दरअसल, ये नाटक एक पारंपरिक सोच के अनुरूप बनाए जाते हैं. इस सोच के अनुसार स्त्री का जीवन केवल घर तक है और पुरुष बाहर काम करता है. घर में रहने के कारण वह सेवाकार्यों में निपुण होती है और पुरुष को ताकतवर, बहादुर और बुद्धिमान होता है. नाटक में पात्रों को इसी सोच के अनुरूप रचा जाता है ताकि समाज में इन्हें आसानी से स्वीकृति मिल सके. इनके अधिकांश दर्शक महिलाएं होती हैं, जो घर पर रहती हैं. इसलिए एक तो उन्हें अमीर परिवार की महिलाएं दिखाकर फैशन की चकाचैंध से आकर्षित करने कोशिश होती है वहीं, रुढ़िवादी सोच दिखाकर कहानी को उनके जीवन से जोड़ने का प्रयास किया जाता है.
इन नाटकों ने महिलाओं के लिए कुछ नियम कायदे गढ़ दिए हैं जिन पर खरा उतरने की उम्मीद समाज महिलाओं से करता है. यह अपेक्षाएं स्त्री और पुरुष दोनों समान रूप से करते हैं. अगर स्त्री ऐसा नहीं करती तो उसे गलत माना जाता है. ये नाटक लोग सालों साल लगातार देखते हैं जिससे की इसमें दिखाए जाने वाले पात्र और उनका व्यवहार लोगों के जेहन में जगह बना लेता है. वह उसे असल जिंदगी से जोड़कर देखने लगते हैं. इसलिए कई बार लोग कहते भी हैं कि महिलाओं को सजने संवरने और चुगलियां करने के अलावा काम ही क्या है.
इस संबंध में यह तर्क भी दिया जाता है कि लोग जानते हैं कि यह अभिनय है तो वो भरोसा क्यों करेंगे. लेकिन, नाटकों का लोगों पर इस कदर प्रभाव होता है कि वे कलाकारों को उनकी असल जिंदगी में भी नाटक के पात्र जैसा ही मानने लगते हैं. दर्शक कलाकारों की कला की सरहना करने के बजाए नायिका की तारीफ और विलेन की बुराई करते हैं. इसके अलावा नाटकों में दिखाई गई साड़ियां, जेवर और स्टाइल तुरंत आम लोगों के बीच प्रचलित हो जाते हैं. यह सब लोगों की सोच पर पड़ने वाले प्रभाव के ही प्रमाण हैं.
यह अच्छी बात मानी जाती है कि नाटकों में महिला पात्रों को प्रमुखता से जगह दी जाती है. अगर ऐसा है तो क्यों वन मैन आर्मी या दैविय शक्ति वाले नाटकों में प्रमुख भूमिका केवल पुरुषों को ही मिलती है. हाल में शुरू हुए पुकार, आर्यन, स्पेशल इंवेस्टीगेटर और महाकुंभ आदि नाटकों में महिलाओं के लिए न के बराबर भूमिका है. दरअसल, नाटक बनाने वाले महिलाओं को अधिक भूमिकाएं इसलिए देते हैं, क्योंकि अधिकतर महिलाएं ही घर पर रहती हैं और उनकी टारगेट दर्शक वही होती हैं.
महिला आयोग भी इन नाटकों में दिखाने जाने वाली कहानी और पात्रों पर सवाल खड़े कर चुका है. साल 2012 मे महिला आयोग की ओर से कहा गया था कि पारिवारिक नाटकों में महिलाओं को अत्यधिक नकारात्मक दिखाने से उनकी छवि खराब हो रही है. साथ ही रिश्तों के बीच कड़वाहट दिखाने से परिवार के सदस्यों का आपसी विश्वास कम हो गया है. हालांकि, जब राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा ललिता कुमारमंगलम से इस विषय पर बात करने की कोशिश की गई तो उन्होंने यह कहकर टाल दिया की वह दिल्ली में नहीं हैं. इतने गंभीर मुद्दे पर देश में कहीं से भी संदेश दिया जा सकता है. दिल्ली की बाध्यता समझ से परे है.
यहां तक की केरल के राज्य महिला आयोग ने साल 2007 में इस विषय पर हुए सेमिनार में नाटक निर्माताओं को सेल्फ सेंसरशिप लगाने की बात भी कही थी. वहीं, केरल के रूरल डेवलपमेंट, प्लानिंग एंड कल्चर मिनिस्टर के.सी. जोसेफ ने भी जुलाई 2013 में कहा था कि टीवी सीरियल्स और रिएलिटी शो परिवार के देखने लायक नहीं होते. इन पर फिल्मों की तरह सेंसरशिप लगाई जानी चाहिए. लेकिन समस्या यह है कि कभी-कभी ही इन नाटकों पर सवाल खड़े किए जाते हैं, एक गंभीर चर्चा नहीं होती. नाटक निर्माताओं की बढ़ती मनमानी और नाटकों के दुष्प्रभावों को देखते हुए इन पर सेल्फ सेंसरशिप के बजाए कड़े नियमों के साथ सरकार द्वारा सेंसरशिप की व्यवस्था होनी चाहिए.
कोट
टीवी पर आने वाले नाटकों को कई लोग देखते हैं और इन पर चर्चा भी करते हैं, ऐसे में इनका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है. इन्हें लगातार देखने वाली महिलाएं/लड़कियां नाटक की महिला से खुद को जोड़कर देखने लगती हैं. इनसे भावनात्मक रूप से जुड़ भी जाती हैं. तब वह नाटक की महिलाओं की तरह ही खुद को समझने लगती हैं और दूसरे लोग भी उन्हें वैसे ही देखते हैं. साथ ही मीडिया (टीवी) में प्रभावित करने की अत्यधिक क्षमताएं हैं. ऐसे में इसे नकारात्मक चीजें परोसने की बजाए परिवार को कैसे सुखद और शांतिपूर्ण बनाया जा सकता है यह दिखाना चाहिए.
सतज्योत गिल (सीनियर साइकोलाजिस्ट, गर्ग साइकाइट्री एंड आई मल्टीस्पेशिएलिटी क्लिनिक)
टीवी पर आने वाले नाटकों का असर लोगों पर जरूर पड़ता है. जिस तरह नाटकों में महिलाओं को दिखाया जाता है, उससे आम लड़कियों की छवि खराब होती है. इन्हें रोकने के लिए लोगों को इन नाटकों का बहिष्कार करना चाहिए. साथ ही सरकार की ओर से भी इन पर बैन या सेंसरशिप लगाकर रोक लगाई जा सकती हैं. दिल्ली महिला आयोग अपने स्तर से ऐसे नाटकों के निर्माताओं को नोटिस भेजता है. सभी सक्षम संस्थाओं द्वारा इसके लिए प्रयास करना होगा.
बरखा सिंह, अध्यक्ष, दिल्ली महिला आयोग