महिलाओं के चित्रण के मामले में हमारी फिल्में दो कदम आगे बढ़ने की कोशिश करती हैं लेकिन फिर एक कदम पीछे खींच लेती हैं। आज कई फिल्मों में महिलाएं अपनी पारंपरिक भूमिका से अलग तो दिखाई जाती हैं लेकिन उनके लिए सुंदरता के मानक वही परंपरागत रहते हैं।
फिल्मों में नायिकाओं की परंपरागत भूमिका एक छरहरी काया वाली, मेकअप में लिपिपुती, शर्मिली और घरेलू लड़की की रही है। उसका काम सिर्फ नायक के इर्द-गिर्द घूमकर प्यार करना और उसका घर संभालना होता है। वह मुख्य भूमिका में होकर भी सहयोगी किरदार की तरह लगती है। वर्तमान में नायिकाओं के कपड़े और हावभाव जरूर बदले लेकिन पुरानी भूमिकाएं अब भी बनी हुई हैं। परंतु इस बीच कुछ ऐसी फिल्में भी आ जाती हैं जो नायिका को मुख्य भूमिका में ले आती हैं और कुछ अलग करने का मौका देती हैं।
बेबी, बाजीराव मस्तानी, मर्दानी, गुंडे, सिंह इज ब्लिंग, एक था टाइगर, बाहुबलि द बिगनिंग और नाम शबाना आदि कई फिल्मों में नायिका को पुलिस आॅफिसर, इंटेलिजेंस एजेंट और एक योद्धा दिखाया गया है। इन नायिकाओं के माध्यम से दिखाई गई सामान्य लड़की कमजोर नहीं है, वह लड़ना जानती है और अपनी क्या दूसरों की रक्षा करने में भी सक्षम है। यह छवि महिलाओं की उस परंपरागत छवि से बिल्कुल अलग है जिसमें उन्हें बेहद कमजोर और पराश्रित दिखाया जाता है। गुंडो के आने पर वह एक कोने में खड़ी होकर तमाशा नहीं देखती बल्कि नायक के समान ही गुंडो से दो-दो हाथ करती है। यह औरत की क्षमताओं का विस्तार और उनकी छवि को मजबूत करना है। ये किरदार सामान्य लड़कियों के लिए प्रेरणा का काम करते हैं।
लेकिन, इस उत्साहजनक पहल में भी एक ऐसी बात दिखती है जो फिल्मकारों की सोच पर लगी पारंपरिक जकड़न का परिचय देती है। वन मैन आर्मी और लगभग वन वुमन आर्मी फिल्मों में पाए जाने वाले अंतर के माध्यम से इसे समझा जा सकता है। अधिकतर फिल्मों में नायक साहसी और फुर्तीला होता है, वह 20-30 लोगों को एकसाथ पीट देता है। इन फिल्मों में नायक अपने किरदार के अनुरूप ताकतवर और मजबूत भी दिखाया जाता है जबकि ऐसे ही किरदारों में दिखाई गई नायिका का शरीर पतला-दुबला और नाजुक होता है। उसके शरीर में मजबूती का आभास नहीं होता।
लोगों को फिल्म में दिखाई गई किसी बात पर भरोसा करने के लिए कुछ हद तक आधारों की जरूरत होती है। अब यह स्वाभाविक है कि कई लोगों को एक साथ पीटना तभी संभव है जब आपके बाजुओं में ताकत हो और पूरा शरीर मजबूत व गठीला हो। नायक तो इस पैमाने पर खरा उतरता है और उसके शारीरिक बल को देखकर लगता भी है कि वह दमदार पंच और किक मार सकता है लेकिन नायिका के साथ स्थितियां अलग होती हैं। वह मारती तो हैं लेकिन उसके बाजुओं में ताकत नहीं दिखती। उसका मारना असंभव सा महसूस होता है। उसका शरीर पारंपरिक किरदारों की तरह छरहरी काया वाला होता है जिसे ताकतवर कतई नहीं कहा जा सकता। भले ही उनका किरदार अलग हो लेकिन उनका प्रदर्शन परंपरिक ही होता है।
इसका उदाहरण है ऐतिहासिक किरदारों पर बनी फिल्म ’बाजीराव मस्तानी’। वास्तविकता में मस्तानी को योद्धा के रूप में भी जाना जाता है। कहा जाता है कि वह बाजीराव के साथ युद्ध पर भी जाया करती थीं। फिल्म में भी मस्तानी का किरदार निभा रहीं दीपिका पादुकोण को कई जगहों पर अपनी युद्ध कला का प्रदर्शन करते और खतरों से निपटते दिखाया गया है। लेकिन, फिल्मकार यहां भी नायिका के सौंदर्य पर फोकस करना नहीं भूला। बाजीराव के शारीरिक बल को दिखाने के लिए कई बार रणवीर सिंह के गठीले शरीर को तो दिखाया गया। उसके चलने, बैठने और बोलने में एक रौब और सख्ती नजर आई लेकिन मस्तानी को पतली-दुबली दीपिका के हवाले कर दिया गया। न उनके शरीर में ताकत दिखती है और न हावभाव किसी योद्धा जैसे हैं। बल्कि वह सुंदर गहने और कपड़ों में लदी हुईं नाचती गाती ही रह जाती हैं। इसी तरह ’गुंडे’ फिल्म की प्रिंयका चोपड़ा को देखकर लगता है कि वह पुलिसभर्ती के लिए आवश्यक शारीरिक मापदंडों पर भी खरी नहीं उतर पाएंगी। ‘बाहुबलि’ फिल्म की तमन्ना भाटिया का शरीर भी एक योद्धा जैसा नहीं दिखाया गया है बल्कि खूबसूरती पर ज्यादा ध्यान दिया गया है।
यह तो हुआ किसी भी किरदार में नायिकाओं से छरहरे शरीर की मांग करना। एक अन्य पक्ष यह भी है कि कई फिल्मों में आइटम डांस भी इन्हीं नायकिओं से करा लिया जाता है। ’गुंडे’ फिल्म इसका बहुत अच्छा उदाहरण है। फिल्म में बेहद चालाकी से कहानी का फायदा उठाते हुए आइटम साॅन्ग डाला गया है। पुलिस आॅफिसर प्रियंका चोपड़ा को बिना आइटम डांस कराए भी कैब्रे डांसर दिखाया जा सकता था। ‘सिंह इज ब्लिंग’ में नायिका के स्विमिंग पूल से बाहर निकलने के दृश्य को विशेष तरह से दिखाना और उसे ट्रेलर में भी रखना दिखाता है कि फोकस नायिका की ताकत से ज्यादा उसकी सुंदरता पर है। इस फिल्म की नायिका भी इतनी दुबली पतली है कि भरोसा होना मुश्किल है कि वह कई लोगों को एकसाथ पीट सकती है।
इनके विपरीत ’मेरी काॅम’ फिल्म एक नजीर पेश करती है। इसमें मेरी काॅम बनीं प्रिंयका चोपड़ा की शारीरिक मजबूती भी दिखाई गई है। शादी के बाद फिर से वही ताकत पाने के लिए व्यायाम और दौड़-भाग करतीं प्रिंयका का शरीर बहुत उनके पेशे के अनुरूप लगता है। लोगों ने भी इस फिल्म में प्रिंयका के काम को पसंद किया है। यह फिल्म ’भाग मिल्खा भाग’ के उस दृश्य की याद दिला देता है जिसमें मिल्खा सिंह बने फरहान अख्तर एक बार हार के बाद फिर से जी जान से परिश्रम में जुट जाते हैं। इन दोनों दृश्यों में किरदार को महत्व दिया गया है ना कि उसे निभाने वाले के लड़का और लड़की होने को।
लेकिन, फिल्मकारों की यह कौन सी मजबूरी है? किरदार एक ही है लेकिन नायक और नायिका का प्रदर्शन अलग-अलग है। जहां नायक पुलिस आॅफिसर और नायिका एक सामान्य घरेलू महिला है तो शारीरिक बल में अंतर समझ सकते हैं लेकिन दोनों ही पुलिस आॅफिसर या सुरक्षा एजेंट होने पर बहुत अधिक अंतर होना समझ से परे है। एक तो नायिका को शारीरिक रूप से मजबूत नहीं दिखाया जाता और दूसरा उसके सौंदर्य पक्ष को अधिक उजागर किया जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारी फिल्मों में लड़की को बिना सुंदरता के साथ स्वीकृति नहीं मिलती।
इसके पीछे क्या फिल्मकार का यह डर है कि ताकतवर नायिकाएं दर्शकों को पसंद नहीं आएंगी? इसका अर्थ तो हुआ कि वह नायिका की सुंदर काया से केवल पुरुष दर्शकों को खुश करना चाहता है क्योंकि जैसे ताकतवर नायक पुरुषों को पसंद आ सकता है तो मजबूत नायिका स्त्री दर्शकों को क्यों नहीं। क्या हम ये मानें की फिल्में सिर्फ पुरुषों के लिए बनती हैं इसलिए नायक और नायिका उन्हीं की पसंद के अनुसार दिखाए जाते हैं? स्त्री दर्शक को वही देखना पड़ता है जो पुरुष दर्शक चाहता है?
यह सवाल इस मानसिकता की ओर भी ले जाते हैं कि आखिर लोगों के लिए स्त्री का सौंदर्य ही क्यों महत्वपूर्ण है? उसकी दूसरी काबिलियत को दरकिनार क्यों कर दिया जाता है? हमारे समाज में यह चलन वर्षों से मौजूद है। अगर विवाह व्यवस्था को ही देखा जाए तो उसमें लड़की का सुंदर व घरेलू होना मायने रखता है और लड़के का कमाऊ व बलिष्ठ होना। लड़के लिए कमजोरी गाली समान और लड़की के लिए तारीफ की तरह है। ये धारणाएं लड़कियों को तो ताउम्र असहाय एवं दुर्बल बनाए रखती हैं लेकिन मर्द सामर्थ बनकर स्त्री से ऊंचे दर्जा प्राप्त कर लेता है। फिर इस असहाय स्त्री को सदा के लिए मर्द के भरोसे कर देना उसे कभी भी बारबरी तक नहीं पहुंचने देता।
हमारे फिल्मकार इन सब बातों पर गौर किए बिना बस व्यावसायिकरण की होड़ में औरत का कमजोर चित्रण करते हैं। महिलाओं की छवि में कुछ सुधार के साथ आ रहीं फिल्में तारीफ के काबिल जरूर हैं, समाज पर कहीं न कहीं उनका प्रभाव पड़ेगा लेकिन जब तक हम पूरी तरह रुढ़िवादी जंजीरों को नहीं तोड़ देते तब तक स्त्री के साथ न्याय अधूरा ही रहेगा। फिल्म निर्माण जैसी बेहद कठिन और प्रभावी कला में महारत रखने वाले फिल्मकारों को स्त्री वर्ग के लिए सही दिशा में योगदान करके अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए।